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________________ ३६४ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ मनसेव कृतं पापं न शरीरकृतं कृतम् । येर्नवालिगिता कांता तेर्नवालिगिता सुता ॥ अर्थ मानसिक परिणामों में रिया हुआ ही पाप माना जाना है । विना मन के केवल शरीर के द्वारा किया हुआ पाप नही माना जाता है। क्योकि जिस शरीर से अपनी स्त्री का आलिंगन किया जाता है उसी ने अपनी पुत्री का भी आलिगन किया जाता है । विन्तु दोनो क्रियायें बाहर से एक समान होते हुए श्री श्री भावी का वार रहता है 1 नगा एक और पद्य है सर्वासामेय शुद्धीनां भावशुद्धि. प्रशस्यते । अन्ययातिग्यतेऽपत्यमन्ययालिग्यते पति. ॥ अयं - मत्र शुद्धियों मे भावशुद्धि प्रधान है । एक महिला पुत्र को भी छाती से लगाती है और पति को भी । किन्तु जिस भाव से पुत्र की लगाती है उस भाव से पति को नहीं । इस प्रकार हिसा अहिंसा के मगले को समझने के लिये जैन शास्त्रों में बहुत ही गम्भीर विचार किया गया है । अहिंसा परमो धर्म यतो धर्मस्ततोजय । अहिंसा परमो धर्म अहिंसा परमागति ॥ अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग. । [पातंजापयोगदर्शन] "अप्रादुर्भाव खलु रागादीना भवयहसेति " [अमतचन्द्र ]
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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