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________________ जैन धर्म मे अहिसा की व्याख्या ] [ ३६३ कर लेना सुगम है । और जो दया से भीगा हुआ मन नही है तो उसको भी सिद्धि के लिये क्लेश उठाने की कोई जरूरत नही है । क्योकि निर्दयी को कभी सिद्धि प्राप्त नही हो सकती है। प्रसिद्ध सत कवि तुलसीदासजी ने भी कहा है कि 'परहित सरिस धर्म नही भाई, पर पीडा सम नही अधमाई ॥' वेदव्यास ने भी सारे पुराणो का सार २ शब्दो मे इस प्रकार बताया है- अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचन द्वय । परोपकार पुण्णाय पापाय परपीडनम् ॥ ( अर्थात् १८ पुराणो का सार यह है कि परोपकार हो पुण्य है और परपीडन = हिसा ही पाप है । t सर्वेषां समयानां हृवयं गर्भश्च सर्वशास्त्राणाम् । अतगुणशीलादीनां पिंड सारोपि चाहिसा || अर्थ - सब मतो का हृदय और सब शास्त्रो का गर्भ तथा व्रत गृण-शीलादिको की पिंड ऐसी सारभूत एक अहिसा ही है । 1 यद्यपि जैन दर्शन मे किसी को दुख देना पाप बताया है । किन्तु इसमे भी इतना और विशेष समझलेना चाहिये कि यदि वर्त्ता के वषायभाव हो तो पाप हो सकता है । अगर कषायभाव नही है तो अपने या दूसरे को पीडा देने मात्र से पाप नही होता है । क्योकि डाक्टर भी आपरेशन करके रोगी को पीडा तो पहुचाता ही है । साधु भी उपवासादि से अपने आपको कष्ट देता है । गुरु भी शिष्य की ताडना करता है । किन्तु ऐसा करते हुये भी इनको पाप नही लगता है । क्योकि इनके भाव अहित करने के नही हैं अतः इनके कषायभाव नही है । एक जीवहिसा ही नही अन्य पाप भी भावो पर ही निर्भर है । यथा -
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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