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________________ जैन धर्म मे अहिसा की व्याख्या ] [ ३५६ ही नही हो सकताहै। क्योकि वायु कायादि जीवो की विराधना तो योगियो के भी टल नही सकती है । जैसा कि कहा है___ जदि सुद्धस्सवि बंधो होहिदि बहिरगवत्थुजोएण । । णस्थिहु - अहिंसगो णाम वाउकायादिवध हेदू ॥ । अर्थ-यदि बाह्य वस्तु के सयोग से अर्थात् बाह्य मे किसी जीव का वध हो जाने मात्र से ही शुद्ध जीव के भी कर्मों का वध होने लगे तो कोई भी जीव अहिंमक नही हो सकता है। क्योकि श्वासादि के द्वारा सभी से वायु कायादि जीवो का वध होना निश्चित है। आचार्य सिद्धसेन ने कहा है कि-(द्वात्रिशतिका ३ मे) ' वियोजयति चासुभिर्न च वधेन संयुज्यते । शिव च न परोपघातपरुषस्मतेविद्यते ॥ - वधोपनयमभ्युपति च पराननिघ्नन्नपि । .. त्वयायमतिदुगम. प्रशमहेतुरुद्योतितः ॥१६॥ अर्थ-कोई प्राणी दूसरेके प्राणो का वियोग करता है फिर भी वह हिंसाका भागी नही होता है। (क्योकि उसके भाव हिंसा करने के नहीं थे ) दूसरा कोई प्राणी जिसके कि बिचार परघात करने की भावना से कठोर हो गये है। (वह निश्चयत हिंसक है) उसका कल्याण नही हो सकता है । तथा तीसरा कोई प्राणी (जिसके कि भाव मारने के है ) वह दूसरो की हिंसा न करता हुआ भी हिंसकपने को प्राप्त हो जाता है । इस प्रकार हे जिनेन्द्र ! आपने यह अतिगहन शाति का मार्ग बत्ताया है। यहा कोई शका करे कि 'आत्मा तो अजर अमर है उसका वध कभी होता नही है तब जीवहिंसा की बात कहना ही निरर्थक है।' इसका समाधान यह है कि तत्व का निर्णय स्याद्वाद
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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