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________________ ३५८ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ होना प्रधानत भावो पर निर्भर है। यदि भावो के आधीन वध मोक्ष की व्यवस्था न हो तो मसार का ऐमा कोई भी प्रदेश नही है जहां पहुँच कर माधक पूर्ण अहिमक रहकर कोई साधना कर सके । जैसा कि कहा भी है कि विष्वग्जीवचिते लोके क्व चरन् फोऽप्यमोक्ष्यत। भावैकसाधनो बंधमोक्षो चेन्नाभविष्यताम् ।। अयं-यदि परिणामो के आश्रित के वध मोक्ष नहीं होता तो चारो ओर से जीवो मे भरे इस ममार मे कहां किसकी मोक्ष होनी ? क्योकि जीवो से ठमाठम भरे जगत् में जीव हिंसा से बच निकलना सभव नहीं है। न कर्मबहुलं जगन्न चलनात्मकं कर्म वा, न नेककरणानि वा न चिदचिद्वधो बंधकृत् । यदक्यमुपयोगमू समुपयाति रागादिभि , स एव किल केवल भवति वधहेतुन णाम् ।। अर्थ-कर्मवध का कारण न तो कर्म वर्गणाओ से भरा जगत् है । न चलन रुप कर्म यानी मन वचन काय की क्रिया स्प योग है । न अनेक प्रकार के करण (इद्रिये) है और न चेतन अचेतन का घात है किन्तु आत्मा का उपयोग जब रागादिको के माथ एकता कर लेता है तो निश्चय करके वही एकमात्र पुरुपो के बध का कारण हो जाता है । क्योकि विशुद्ध परिणामो के धारक जीव के उसके शरीर का निमित्त पाकर हो जाने वाला पर प्राणियो के प्राणो का व्यपरोपण हो यदि वध का कारण हो जाय तो फिर कोई मुक्त
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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