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________________ ३४८ ] [* जैन निवन्ध रत्नावलो भाग २ बोधक के कर्ता) और पंडित फतहलालजी (विवाहपद्धति के रचयिता) ने तथा कई आधुनिक पडितो ने पीठिकादि सभी मत्री का अर्थ अर्हत सिद्ध-गुरु किया है। यहा तक कि सुरेन्द्र और निस्तारक मन्त्र जो स्वर्गेन्द्र और गृहस्थाचार्य के वाची है उनमे प्रयुक्त शब्दो के प्रसिद्ध अर्थ की भी उन्होंने अवहेलना करके उनका भी अर्थ जिनदेव मे ही घटाया है। ऐसा उन्होने क्यो किया ? इसके दो मुख्य कारण है। एक तो यह है कि इन मन्त्री मे प्रत्येक जाति के मन्त्र के अन्त मे सेवा फल षट् परमस्थान भवतु" आदि काम्यमत्र आता है। जिसका मतलब होता है उनकी सेवा करने का फल षट् परमस्थान की प्राप्ति चाहना। इस प्रकार की इच्छा पूति जिनदेव और गुरु की आराधना से तो हो सकती है किन्तु स्वर्ग के इन्द्र और गृहस्थाचार्य की आराधना से नही हो सकती है वे षट् परमस्थान आदि की प्राप्ति करा नहीं सकते हैं। दूसरा कारण है आदिपुराण का वह वाक्य जो मन्त्रों की विवेचना किये बाद लिखा गया है कि-एत सिद्धार्चनं कुर्यादा. धानादि क्रियाविधौ।" आधानादि क्रियाओ मे इन मन्त्री से सिद्धोका अर्चन करना चाहिये यहा इन मन्त्रीसे सिद्धार्चन करने की बात कही है। इसलिये मन्त्रो मे आये "ग्रामपतये स्वाहा" "षटकर्मणे स्वाहा” "कल्पाधिपतये स्वाहा" "सौधर्माय स्वाहा" इत्यादि का अर्थ सिद्ध भगवान करना चाहिये। इस प्रकार शब्दो के प्रसिद्ध अर्थ करने से उपरोक्त दो आपत्तिया खर्डी होती है। अत कोई ऐसा रास्ता ढू ढा जावे जिससे शब्दो के प्रसिद्ध अर्थ ही किये जावे और उक्त आपत्तिय भी न आने पावे।
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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