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________________ पीठिकादि मंत्र और शासनदेव ] । ३४७ इससे सिद्ध होता है कि-पीठिकामत्रो मे अग्नीन्द्र 'स्वाहा' का अर्थ अग्नीन्द्र के लिये पूजाद्रव्य अर्पण करने का नहीं है। किन्तु वहा स्वाहा का प्रयोग मन्त्रपूर्ति के लिये किया गया प्रतीत होता है। चूकि केवलियो के निर्वाण के वक्त उनका निर्जीव शरीर अग्निकुमारो के इन्द्र के मुकुट से उत्पन्न अग्नि से दग्ध हुआ करता है । इसलिये परनिर्वाण नाम के परमस्थान के सूचक इन पीठिका मन्त्रो के साथ अग्नीद्र का उल्लेख किया गया है। इसी से मन्त्र मे उसका एक विशेपण "निर्वाणपूजाह लिखा है। जिसका अर्थ होता है केवलियो की निर्वाणपूजा मे काम आने योग्य । इसी प्रकार वैश्रवण-कुबेर के लिये समझ लेना चाहिये। मन्त्र मे वैश्रवण शब्द को भी अग्नीन्द्र की तरह ही संबोधनात लिखकर आगे उसके स्वाहा लिखा है। अत यहा भी चतुर्थी विभक्ति न होने से कुबेर के लिये स्वाहा नहीं लिखा है । तथा सुरेन्द्रमन्त्रो में एक मन्त्र "मनुचरायस्वाहा" आता है जिसका अर्थ इन्द्र के अनुचर के लिये स्वाहा किया जाता है। ऐसा अर्थ करना गलत है। वाक्य मे अनुचराय यह चतुर्थी विभक्ति का प्रथम वचन है उससे इन्द्र का एक अनुचर अर्थ प्रगट होता है । इन्द्र के एक नही अनेक अनुचर होते हैं अत' उफ्त अर्थ स्पष्टत' असगत है। सही अर्थ उसका ऐसा है-"भगवान् का अनुचर-सेवक जो सुरेन्द्र है उसके लिये स्वाहा।" यही अर्थ पुराणे पंडित दौलतरामजी ने वचनिका मे किया है । पुराणे पडित श्री पन्नालालजी साहब सघी (विद्वज्ज
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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