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________________ ३२८ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग इसी प्रकार के गलत हिन्दी अनुवाद इस 'सर्वदर्शनसग्रह' " मे पद पद पर है-उदाहरणत पृष्ठ ७२ पर देखिये-'अण्टादश दोपा न यस्य च ॥३॥' इसका अर्थ किया है-"ये ही १८ नयदोप है।" जबकि इसका मही अर्थ यह है कि-"जिसके १८ दोप नही है" (ऐसे जिनेन्द्र है) । इसी तरह पृ ७३ पर देखिये लुचिता पिच्छकाहस्ता पाणिपाता दिगंबरा'। ऊर्वाशिनो गृहे दातु द्वितीयास्यु जिनर्षय ॥६१।। इममे तीसरे चरण का अर्थ इस प्रकार किया है"दिगवर लोग दाता के घर भी भोजन नही करते हैं।" जवकि मही अर्थ यह है कि-'दाता के घर में खडे भोजन करने वाले दि हैं।' निष्पक्ष उदार विद्वानो से प्रार्थना है कि-वे साम्प्रदायिक सकीर्णता की पर्याप्त निंदा करें और जो इस प्रकार के कार्य हुए हो उन्हे वापिस सुधारे जिससे श्रमण ब्राह्मण धर्म मे परस्पर भ्रातृभाव की और भी वृद्धि हो। 'शोरपि गुणा वाच्या' के रूप मे कहो चाहे सहज रूपमै कहो पूर्वकालीन अनेक वैदिक विद्वानो ने जैनधर्म के प्रति वात्सल्य भाव प्रदर्शित किया है जो उनकी उदात्त भावना का द्योतक है। इसकी जड उन्होने इतनी गहरी डालो थी कि-जैनो के भगवान् ऋषभदेव को ८वे ऋषभावतार के रूप मे मान्य किया था। आज के साप्रदायिको को उस ओर ध्यान देना चाहिये एव पूर्वजो के गुणानुराग का अनुसरण करना चाहिये। इसी मे भारतीत एकता है जो आज के युग की खास आवश्यकता है।
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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