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________________ ३२६ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ दर्शयन्वमं वीराणां सुरासुर नमस्कृत । नीति व्रितय कर्त्ता यो युगादौ प्रथमो जिनः ॥३॥ ॐ नमोऽर्हतो ऋपभो ॐ ऋषभ पवित्र पुरुहूत मध्वर यज्ञेषु नग्न परममाहसस्तु त वर शत्रु जयत पशुरिन्द्रमाहुति गिति स्वाहा । ॐ त्रातारमिद्र ऋषभ वदति अमृतारमिन्द्र हवे गत सुपार्श्वमिन्द्र हवे शक्रमजित तद्वर्धमान पुरुहूत मिन्द्रामाहुरिति स्वाहा । " आज ये दोनो कथन भी मनुस्मृति और यजुर्वेद मे नही पाये जाते । प टोडरमलजी के वाद २०० वर्षो मे ही माप्रदायिको ने साहित्य का कितना अगभग और उसमे कितना रद्दोबदल कर दिया है यह इन प्रमाणो से अच्छी तरह जाना जा सकता है 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' मे पं टोडरमलजी ने और भी विविध वैदिक ग्रन्थो से जैन उल्लेख उद्धृत किये है शायद उनमे से कुछ और की भी यही हालत हुई हो । इस प्रकार जैन उल्लेखो के निष्कासन और विपर्यास को यह छोटी सी कहानी है । अव एक दो उदाहरण ऐसे भी नीचे प्रस्तुत किये जाते हैं जिनमे एतद् विषयक बड़ा ही अर्थ का अनर्थ किया गया है - 'सत्यार्थ प्रकाश' हि सस्करण सन् १८८४ के पृष्ठ ४४७ पर लिखा है: न भुक्ते केवलीन स्त्री मोक्ष मेति दिगंबराः । प्राहुरेषामय भेदो महान् श्वेतावरं सह ॥ इसका अर्थ स्वामी दयानन्दजी सा. ने इस प्रकार किया ·
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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