SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 304
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०० [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ चरित (अपभ्र श) की रचना की है क्योकि वे अपने गुरु का नाम माणिक्य नदि (परीक्षामुख के कर्ता) लिखते है, जबकि वसनदि ने नयनदि के गुरु का नाम श्रीनदि तिखा है। एक श्रीनदि वे हुए हैं जिनके शिष्य श्रीचन्द्र ने पुराणसार बनाया है तथा पुष्पदत के अपभ्रंश महापुराण और रविषेण के पदमचरित पर टिप्पण लिखे है। इन तीनो की रचना श्रीचन्द्र ने धारा नगरी में राजा भोज के समय क्रमश १०७०, १०८० और १०८७ मे की थी। पदमचरित के टिप्पण की प्रशस्ति में श्रीचन्द्र ने अपने गुरु श्रीनंदि को बलात्कारगण का आचार्य लिखा है (देखो "भट्टारकसंप्रदाय" पृ० ३६) । बलात्कारगण के साथ कुन्दकुन्दान्वय और सरस्वती गच्छ ये दो विशेषण भी लगे रहते है। सरस्वती गच्छ विशेषण विक्रम की १४ वी सदी से लगने लगा है । इस गण के साधु ११ वी १२ वी सदी मे ही भूमि-दान लेने लग गये थे। वसुनदि ने जो अपनी गुरु परम्परा लिखी है उसमे उन्होने श्रीनदि को कुन्दकुन्दान्वयी लिखकर उनका बलात्कारगण इगित किया है। अत वसुनदि की गुरुपरम्परा के श्रीनदि और उक्त श्रीचन्द्र के गुरु श्रीनदि दोनो एक ही मालूम पड़ते हैं। इन्ही श्रीनदि के शिष्य नयनदि हुये हो और नयनदि के शिष्य नेमिचन्द्र तथा नेमिचन्द्र के शिष्य वसुनंदि को मान लिया जावे और जो समय श्रीचन्द्र का स० १०८७ आदि उपर लिख आये है वही समय वसुनदि के दादा गुरु नयनदि का भी मान लिया जावे तो इस हिसाब से वसुनदि का अस्तित्व विक्रम की १२ वीं शती के दूसरे चरण मे माना जा सकता है।
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy