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________________ कतिपय ग्रन्थकारों का समय निर्णय ] वीरनदि लिखते हैं । वे सारे ग्रन्थभर मे शुभचन्द्र का कही कोई उल्लेख नहीं करते हैं तथा कनडी टीका वि सं. ११६३ के आसपास रची गई है । अगर यही समय मूलग्रन्थकारे पद्मनदी का मान लिया जाये तो विक्रम स. ११०० के लगभग होने वाले प्रभाचन्द्र के द्वारा एचर्विशतिका का पद्य उद्ध त कसे किया जाता? जैसाकि हम ऊपर लिख भाये हैं। कनडीटीकाकार और मूलग्रंथकार पद्मनदी को अभिन्न समझने की भ्राति ने इतिहास मे बहुत गडबडी पैदा की है । इस भ्रांति में पड़ कर ही आत्मानुशासन (जीवराज ग्रन्थमाला से प्रकाशित) की प्रस्तावना मे आत्मानुशासन, समाधिशतक और रत्नकरड इन तीनो ही ग्रन्थो के टीकाकार प्रभाचन्द्र को प आशधरजी के वक्त का बता दिया गया है (पृ. २०) जो बिल्कुल तथ्यहीन है। वसुनंदी यहां हम उन वसुनंदी के समय की चर्चा कर रहे है जिन्होने प्राकृतभाषा मे एक श्रावकाचारसथ लिखा है, जिसका प्रचलित नाम वसुन दिश्रावकाचार है। इन्होने ग्रन्थ के अत मे अपनी प्रशस्ति लिखी जरूर है पर उस मे आपने ग्रथ का रचनाकाल लिखने की कृपा नहीं की है। प्रशस्ति मे आपने जो अपनी गुरुपरपरा दी है उसमे तीन नाम लिखे हैं। प्रथम ही श्रीनदी हुये, उनके शिष्य नयनदी हुये, नयनदी के शिष्य नेमिचन्द्र हुये । उन नेमिचन्द्र के शिष्य वसुनदी ने यह उपासकाध्ययन (वसुन दिश्रावकाचार) ग्रन्थ बनाया। इन वसुन दि के प्रगुरु चे नयनदी तो हो नहीं सकते जिन्होने वि. स ११०० मे सुदर्शन
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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