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________________ २६६ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ टीका दृष्टव्य है। उसके ५ वे परिच्छेद के श्लोक २४ की टीका मे प्रभाचन्द्र ने ज्ञानार्णव का निम्न पद्य उद्ध त किया है क्षेत्र वास्तु धनं धान्यं द्विपदं च चतुष्पदम् । शयनासनं च यानं कुप्यं भांडममी दश ॥४॥ सर्ग १६ प्रभाचन्द्र ने कुछ साहित्य राजा भोज के राज्य मे और कुछ साहित्य भोज के उत्तराधिकारी राजा जयसिंह के राज्य मे निर्माण किया है। इतिहास मे राजा भोज का राज्यकाल वि.स १०७० से १११० तक का और उसके बाद जयसिंह का राज्यकाल वि सं १११६ तक का माना है। यही और इससे कुछ आगे तक का समय प्रभाचन्द्र का है । शुभचन्द्र के समय की उत्तरावधि भी यही समझनी चाहिये यानी इस समय से पहिले पहिले ज्ञानार्णव का निर्माण हुआ है । अर्थात् ज्ञानार्णवकी रचना विक्रम की ११ वी शती का दूसरा तीसरा चरण हो सकता है। श्री विश्वभूषण ने इन शुभचन्द्र को राजा मुज और भोजदेव के समकालीन लिखा है। इस कथन की सगति भी उक्त समय से मिल जाती है । विश्वभूषण ने भर्तृहरि को भी इन्ही शुभचन्द्र के समसामयिक लिखा है सो ये मर्तृहरि शतकत्रय के कर्ता भर्तृहरि से भिन्न कोई अन्य ही भर्तृहरि हो सकते हैं। क्योकि मत हरि के नीतिशतक का "नेता यस्य वृहस्पति" और वैराग्यशतक का "यदेतत्स्वच्छद" ये दोनो पद्य गुणभद्रकृत आत्माशासन मे क्रमश ३२ और ६७ नम्बर पर पाये जाते हैं। अतः तकत्रय की रचना गुणभद्र से भी पहिले हुई है। गुणभद्र का 'स्तित्व वि. स ६१० के लगभग तक का माना जाता है। इसनये जानार्णव के रचयिता शुभचन्द्र जिनका कि समय ऊपर
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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