SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६० ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ - अब तक उनकी ११ रचनाओ का पता लगा है। उनके नाम कालक्रम से इस प्रकार हैं , आत्मानुशासन टीका, गोम्मटसार पूजो, रहस्यपूर्ण चिट्ठी, गोम्मटसार जीवकाड-कर्मकांडे टीका, लब्धिसारक्षपणासार टीका, अर्थसदृष्टि, त्रिलोकसार टीका, मोक्षमार्ग प्रकाशक और पुरुषार्थ सिद्ध युपाय टीका। इनमे से पिछली दो रचनायें अपूर्ण हैं। वि० स० १८२१ मे लिखी इन्द्रध्वजमहोत्सव की पत्रिका मे ब्र० रायमल्लजी ने मोक्षमार्ग प्रकाशक का उल्लेख किया है अतः यह ग्रन्थ उस वक्त बन रहा था। इसी बीच पडित जो पुरुषार्थ-सिद्ध युपाय की टीका भी बनाने लग गये थे और अकस्मात् ही वि० स० १८२४ के करीब वे मार दिये गये। फलतः उनकी दोनो ही रचनायें अधूरी रह गईं। उनमे से पुरुषार्थसिद्ध युपाय की उनकी अधूरी टीका को तो प० दौलत राम जी ने वि० स० १८२७ मे जयपुर मे पूर्ण कर दी। उस वक्त वहाँ पृथ्वीसिंह का राज्य था परन्तु मोक्षमार्ग प्रकाशक उनका स्वतंत्र ग्रन्थ होने के कारण पूरा नहीं किया जा सकता है। इन ११ रचनाओं के अलावा एक १२वी रचना उनकी और मिली है वह है हिन्दी गद्य मे समवशरण का वर्णन। यह रचना उन्होने त्रिलोकमार की टीका पूर्ण किये बाद की है और हस्त 0 अजमेर के शास्त्रमहार में "सामुद्रिक पुरुष लक्षण" ग्रंथ की १ हस्तलिखित प्रति है उसके अन्त मे लिखा हुआ है 'स० १७६३ भादवासुदी १४ के दिन जोबनेर मे ५० टोडरमलजी के पठनार्थ प्रतिलिपि की गई"। इन सब प्रमाणो से स्पष्ट सिद्ध है कि उनका जन्म १७६७ में मानना और उनकी मृत्यु अल्पायु मे मानना नितान गलत है।
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy