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________________ दिगम्बर परम्परा मे श्रावक-धर्म का स्वरूप ] [ २४५ धतूरा, अफीम, गांजा आदि को भी त्याग देना चाहिये । जो हिंसाजनक भी न हो और मादक भी न हो किंतु अपनी प्रकृति के अनुकूल न हो अर्थात जिनके खाने से अपने बीमारी पैदा होती हो वे अनिष्ट वस्तुयें कहलाती हैं उनका भी त्याग होना चाहिये | क्योकि बिना प्रतिज्ञा किये योही किन्ही वस्तुओ को सेवन नही करने से व्रत नही होता है और उसका फल भी नही मिलता है । अयोग्य विषयो का तो त्याग करना लाजिमी है ही किन्तु योग्य विषयो का भी प्रतिज्ञापूर्वक त्याग करना चाहिये इसी को व्रत कहते हैं । स्वामी समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड मे कहा है - "अभिसंधिकृता, विरतिविषयाद्यो ग्याद् व्रत भवति " ॥ कुछ चीजें ऐसी भी होती है जो निर्दोष होने के साथ २ अपने लिये अनिष्ट भी नही है किन्तु उत्तम पुस्पो के सेवन योग्य नही होती हैं, उन्हें अनुपसेव्य कहते हैं। धूम्रपान, गोमूत्र, ऊटनी का दूध, शखचूर्ण, लहसन, जरदा, उच्छिष्ट आहार, रजस्वला आदि स्पर्शित भोजन-पान, सूवासूतक युक्त गृह का आहार अनार्यो की वेषभूषा, अश्लील भंड वचन बोलना या वैसे गीत गाना, अशुद्धचर्या - गदा रहना इत्यादि अनुपसेव्यो कर भी त्याग कर देना चाहिये । जीभ के थोडे से स्वाद के लिये सजीवो और अनन्त स्थावर जीवो की हिंसा करके घोर पाप कर्मों का वध करना श्रावक के लिये किसी भी तरह से उचित नही है । (ग) चार शिक्षा व्रत : देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास, और वैयावृत्य ये ४ शिक्षाव्रत हैं । इनसे महानतो की ओर बढ़ने को शिक्ष
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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