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________________ २४४ ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ अलावा इसके इस व्रत के धारी को उन भोगोपभोगो का भी त्याग करना होता है जिनमे त्रसजीवो का घात होता हो, अनन्त स्थावर जीवो का घात होता हो, जो मादक (नशाकारक) हो, अनिष्ट हो और अनुपसेव्य हो। बीधा अन्न, बेर, (बदरी फल) सडेफल, बासी भोजन, नीमकेतकी के फूल, मर्यादा बाहर का आटा (आटे की मर्यादा शीतऋतु मे ७ दिन, ग्रीष्म मे ५ दिन, वर्षाऋतु मे ३ दिन की है। तदुपरांत उसमे त्रस जीवो की उत्पत्ति शुरू हो जाती है) रात मे बनाया भोजन, चर्मपात्र मे रक्खा घृत-तेल-जलादि द्रव द्रव्य, डकलगे सिंघाडे-पिस्ता-चिरोजी-छुवारा-जायफलसूठ-इलायची आदि, द्विदलान्न या द्विदलान की बनी वस्तुओ को गोरस (दही, दूध, छाछ) के साथ खाना, बहुत दिनो का अचार, प्रसिद्ध २२ अभक्ष्य, जलेबी, फाल्गुण बाद के तिल इत्यादि वस्तुओ मे त्रसजीव पैदा हो जाते हैं । अतः उनके भक्षण का तो यावज्जीवन त्याग करना होता है। तथा कन्दमूल, आदो, आलू, गाजर, मूली, सकरकद, सूरण, गीली हलदी, प्याज, गिलोय, मूग-वणा आदि जिनमें अ कुर फूट निकले हो, इत्यादि हरी वनस्पतियो को आगम मे अनन्तकाय माना है। प्रायः प्रत्येक जीव का अपना २ अलग २ शरीर होता है। परन्तु उक्त वनस्पतियो मे अनन्त जीवो का एक ही शरीर होता है, जिससे ये अनन्त काय कहताती है । इनका भक्षण करने से अनंतानत एकेन्द्रिय जीवों का घात होता है। अतः इनका भी आजीवन त्याग कर देना आवश्यक है । आगम मे मद्य-मांस की तरह मक्खन को भी महाविकृति कारक माना है, अत. यह भी अभक्ष्य है, तथा मादक वस्तुये-भाग,
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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