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________________ २१२ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ किया है । अत उसका अभिप्राय मुनिदीक्षा समझना उचित नही है । नग्न हुये वाद भी उसको महाव्रत देने की बात नहीं लिखी है । ऊपर उद्धृत आशाधर के ४४वें श्लोक पर ध्यान दीजिये | उसमे वह निर्यापक के वचनों से अपने मे महाव्रतो का आरोपण करके महाव्रतो की भावना भात्रे, ऐसा लिखा है । इसका तापर्य यह हुआ कि वह नग्न हुये वाद 'में महाव्रती है' ऐसी कल्पना कर लेते । साक्षात् महाव्रती मुनि अपने को न माने । रत्नकर्ड श्रावकाचार के उक्त उद्धरण मे आये "आरोपयेत्" की व्याख्या प्रमाचन्द्र ने भी महाव्रतो की स्थापना करना की है। धारण करना अर्थ नही किया है। 25 आजकल आधुनिक मुनियों की मूर्तिया बनने का रिवाज चानू हो गया है मानो जैसे तीर्थकर मूर्तियो से ऊब गये हो - यह सब हमारे अविवेक का परिणाम है। जिन मूर्ति और जिन मन्दिर के वजाय अब तो मुनि मूर्ति ओर मुनि-मन्दिर का युग आ गया है। इस युग प्रवाहमे सब डुबकी लगाना चाहते हैं नई नई होशियारी - कलाबाजी धर्म में भी प्रविष्ट हो गई है अब तो कोई भी जैनी बिना मुनिपद के मरने वाला ही नही इसके लिये मुनिदीक्षा की केशलोच तपस्यादि की भी कोई झझट तकलीफ नही अन्त समय में झट से परिवार के लोग मुनि बना देंगे और सागरान्त नाम रखकर फिर उन मुनि की फोटूए, पूजायें, स्तोत्र, चालीसा, समाधिस्थल, मूर्तिया बना देंगे। गरीव हो चाहे अमीर इसमे कोई क्यों पीछे रहेगा सब अपने दादा पिता-भाई मृतियाँ बनाकर जगह-२ भगवान की जगह सबके रजनीश आदि ४० करीव नाना-ममा आदि परिजनो की छोटी बडी मन्दिरो मे विराजमान कर देंगे फिर तो परिजन ही पूजे जाने लगेंगे। जब जगत में भगवान हो गये तो जंनी ही क्यों पीछे रहने लगे । अभी पंचम काल (कलिकाल ) के २१ हजार वर्ष मे से सिर्फ २ || हजार वर्ष अभी से इसका रंग चढ़ने लगा है । ही बीते हैं
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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