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________________ १५८ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ __भगवती आराधना के प्रथम अध्याय की गाथा ५३ की बचनिका मे श्री पडित सदासुखदास जी साहब ने ऐसा लिखा है ' 'बहरि अन्य परिग्रह क धारती जे स्त्री तिनकै ह औत्सर्गिकलिंग वा अपवाद लिंग दो प्रकार होय है। तहां जो सोलह हस्त प्रमाण एक सुफेद वस्त्र अल्पमोल का ताते पग की एढ़ीसूलेय मस्तकपर्यंत सर्व अगक आच्छादनकरि अर मयूरपिच्छिका धारण करती अर ईर्यापथ में दृष्टि धारण करती, लज्जा है प्रधान जाकै सो पुरुषमात्र में दृष्टि नही धरती, पुरुषनित वचनालाप नहीं करती। अर ग्राम के वा नगर के अति नजीक नही अर अतिदूरह नही ऐसी वसतिका मे अन्य आर्यिकानिका संघ मे वसती, गणिनी को आज्ञा धारण करती, बहुत उपवासादिक तपश्चरण मे प्रवर्तती श्रावक के घर अयाचिक वृत्ति करि दोष रहित अंतराय रहित आप के निमित्त नही कियो जो प्रासुक आहार ताकि एक बार बैठि करि मौनतें ग्रहण करती । आहार का अवसर बिना गृहस्थनि के घर धर्मकार्य विना नही गमन करती, निरतर स्वाध्याय मे लीन रहती, एक वस्त्र विना तिलतुष मात्रहू परिग्रह नही ग्रहण करती, पूर्व अवस्था सबधी कुटु वादिसू ममत्व रहित रहती ऐसी जो स्त्री ताकै जो ये पचपापनिका मन वचन काय कृत कारित अनुमोदना ते त्यागकरि व्रतधारण समितिनि का पालना सो ही आर्यिका का व्रतरूप औत्सर्गिकलिंग कहिये सर्वोत्कृष्ट लिंग है।' आयिकायें भिक्षा के लिये जिस ढग से गमन करती हैं, उसका वर्णन मूलाचार के समाचार अधिकार में इस प्रकार किया है
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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