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________________ प० टोडरमल जी और शिथिलाचारी साधु ] [ ६३ भाव हो तो अच्छा कहा जा सकता है । खाली भेपमात्र तो अच्छा नही कहा जा सकता। अगर हर सूरत मे मुनि का वेपमात्र ही गृहस्थ से श्रेष्ठ हाता हो तो आचार्य समतभद्र स्वामी रत्नकरड श्रावकाचार में यह नही लिखते कि मोही मुनि से निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ है । और महर्षि कुन्दकुन्द भी दर्शन पाहुड की २६ वी गाथा में असयमी मुनि को गृहस्थ तुल्य नहीं बताते । फिर गृहस्थ तो यह दावा नही करता कि मुझे तुम ऊचा मानो वह तो भीतर बाहर एकसा है अत गृहस्थ तो कपटी नही है । किन्तु ये मुनिवेपी तो अपने को परम गुरु कहते हुये गृहस्थो से प्रणाम विनय कराते है और अपनी जयजयकार बुलाते है । परन्तु बाहर जैसा मुनि का रूप इन्होने वना रक्खा है, तदनुसार ये मुनि का आचार पालते नही हैं अर्थात् भीतर से मुनि नही है तो यह तो कपट व्यवहार हुआ । तव ये गृहस्थो से अच्छे कैसे हो गये ? गृहस्थो से कोई ठगाया तो नही जाता, इन भेषियो से तो भोली जनता पग २ पर ठगाई जा रही है । व्याघ्र से इतना खतरा नहीं जितना कि गोमुख व्याघ्र से होता है । ऐसे ढोगी साधुओ की आलोचना करना मुनिनिन्दा नही कहलाती है । वे मुनि ही नही तो निदा का सवाल ही नही रहता । प्रश्न- यह जानते हुये भी कि - "अमुक जैन मुनि आचारहीन है" तथापि लोकलाज से हम गृहम्थो को उन्हें भी भोजनादि देना पडता है। हमारे द्वार पर आने वाले अन्य कोई भी जव भूखे नही जाते तो ये तो जैनमुनि का वेष लेकर आते हैं, तब भला इनको आहार कैसे नही दिया जाये ? उत्तर - अन्य को आहार देने में और जैनमुनि को आहार देने मे बडा अन्तर है । अन्य को आहार देना यह गृहस्थ का terw 1
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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