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________________ ६२ ] [* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ - T णग्गत्तणं अकज्जं भावणरहियं जिणेहि पण्णतं । इयणाऊण य णिच्चं भाविज्जहि अप्पय धीर ॥५।। __ अर्थ-भावरहित नग्नपणा कार्यकारी नही है ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है । यह जानकर हे धोर | सदा तु आत्मा की भावना कर। सिक्के के दृष्टात मे यह बात समझने की है कि-जिस रुपये मे चादी ठीक हो पर उस पर सरकारी छाप ( मोहर) ठीक न हो तो भले ही वह व्यवहारिक क्षेत्र मे चल नहीं सकेगा तथापि उसकी चादी का मूल्य तो कुछ मिलेगा ही किन्तु द्रव्यसिक्का तो गिलट का हो और मोहर उसकी ठीक हो तो वह तो कुछ भी मूल्य न पावेगा। इसी तरह द्रव्यलिग रहित भावलिंग चाहे अन्तिम सिद्धि मोक्ष का साक्षात् साधक नही है तथापि परम्परा साधक तो हो ही जावेगा । जैसा कि शिवकुमार भावश्रमण होकर सन्यास से मरण कर ब्रह्मस्वर्ग मे विद्युन्माली देव हुआ। वही जबूकुमार के भव मे भावलिंग के साथ द्रव्यलिग को धारण करके मोक्ष मे गया। (देखो 'जबू स्वामी चरित') प्रश्न-ये मुनिवेषी शिथिलाचारी हे तो क्या हुआ। पापपक मे लिप्त हम गृहस्थो से तो अच्छे ही है। मुनिनिंदा करने से घोर पाप का वध होता है। उत्तर-जिनकी अभी जिह्वालपटता, पैसे की तृष्णा, विषय वासना नही छूटी, इद्रियें जिनकी वश मे नही हैं, जो अपने आदर सत्कार के इच्छुक है, कषाय भाव रखते हैं और परीषह नहीं सहते है ऐसे मुनि हम गृहस्थो से अच्छे नही कहला सकते है । नग्न होना एवं पिच्छी कमडलु धारण करना तो बाह्य भेष है । इस भेष के साथ अन्तरग मे त्याग वैराग्य
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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