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________________ भक्ति बाबक अथवा सुधी सामाजिक अर्थात् सद्गहस्थ की दैनिक जीवनचर्या आवश्यक षट्कर्मों से अनुप्राणित हुआ करती है।' इन षटकों में देव-पूजा, गुरु-सेवा, स्वाध्याय, संयम तथा तप धावक के दैनिक आवश्यक कर्तव्य में देवपूजा का स्थान सर्वोपरि है। राग प्रचुर होने से गृहस्थों के लिए जिनपूजा वस्तुतः प्रधान धर्म है। भया और प्रेम तस्व के समीकरण से भक्ति का जन्म होता है । अक्षा-भक्ति एवं अनुराग अथवा जन्म-मरण भय के मिश्रण से पूजा को उत्पत्ति होती है।' जिन, जिनागम, तप तथा श्रुत में पारायण आचार्य में सद्भात विशुद्धि से सम्पन्न अनुराग वस्तुतः भक्ति कहलाता है। पूजा के अन्तरंग में भक्ति की भूमिका प्रायः महत्वपूर्ण है । जन-हिन्दी-पूजाकाव्य में प्रयुक्त भक्ति-भावना पर विचार करने से पूर्व जैन धर्म की भक्तिभावना विषयक संक्षिप्त चर्चा करना यहां असमीचीन न होगा। जैन धर्म का मेरुदण्ड ज्ञान है। ज्ञान प्राप्त करने के लिए भक्ति एक आवश्यक साधन है । भक्ति मन की वह निर्मल वशा है जिसमें देव तत्व का १. देव पूजा गुरुपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने । --पंचविंशतिका, पद्मनंदि, ६/७, जीवराज ग्रंथमाला, प्रथम संस्करण सन् १९६२ । २. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्गी, भारतीय ज्ञान पीठ, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, वि० सं० २०२६, पृष्ठ ७३ । ३. साद शताब्दी स्मृति ग्रंथ, जिन पूजा का महत्त्व, लेखक श्री मोहनलाल पारसान, श्री जैन श्वेताम्बर पंचायती मंदिर, साई शतान्दी महोत्सव समिति, १३६ काटन स्ट्रीट, कलकत्ता ७, प्रथम संस्करण १६६५ । पृष्ठ ५३ । ४. जिने जिनागमे सूरो तपः श्रुतपरायणे । सद्भाव शुदि सम्पन्नोऽनुरागो भक्ति रुच्यते ।। ज्यशस्तिलक और इंडियन कल्चर, प्रो. के. के. हेण्डीकी, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, प्रथम संस्करण १६४६, पृष्ठ २६२ ।
SR No.010103
Book TitleJain Hindi Puja Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAditya Prachandiya
PublisherJain Shodh Academy Aligadh
Publication Year1987
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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