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________________ ( ५५ ) संसार-भावना-संसार का अर्थ है भटकना। जीव एक शरीर को त्यागकर दूसरा ग्रहण करता है। इसी प्रकार नया ग्रहण कर पुनः उसे त्यागता है। यह प्रण-स्याग का क्रम निरन्तर चल रहा है। मिथ्यात्व अर्थात् विपरीत व एकान्ताविक रूप से वस्तु का बयान तथा कषाय अर्थात् क्रोध, मान, माया, लोभ से युक्त इस जीव का अनेक बेहों अर्थात् योनियों में भटकन होता है। वस्तुतः यही संसार है।' सांसारिक स्वरूप को समझकर मोहत्याग कर आत्म-स्वभाव में ध्यान करना संसार-भटकन से मुक्ति प्राप्त करना है। ___ लोकभावना-जीव आदि पदार्थों के समवाय को लोक कहते हैं। लोक के तीन भेद हैं। अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्व लोक ।' अशुभ उपयोग से नरक तथा तिर्यच गति प्राप्त होती है, शुभ उपयोग से देवगति और मनुष्य गति का सुख प्राप्त होता है, तथा शुद्ध उपयोग से मुक्ति की प्राप्ति होती है। इस प्रकार लोक-भावना का विन्तवन करना श्रेयस्कर है। ___ अशुचि भावना-यह शरीर अस्थियों से बना है, मांस से लिपटा हुआ है और चर्म से ढका हुआ है तथा कीट-समूहों से भरा है अतः सदा गन्दा १. एक्कं च जति सरीर अण्णं गिण्हेदि णवणव जीवो। पुणु पुणु अण्ण अण्ण गिण्हदि मुचेदि बहुवारं ॥ एक ज संसरण णाणदेहेसु हदि जीवस्स । सो संसारो भण्णदि मिच्छकसायेहिं जुतस्स ।। --तत्व समुच्चय, अध्याय ७, गाथांक १२, १३, डा. हीरालाल जैन, भारत जैन महामण्डल, वर्धा, प्रथम संस्करण १६५२, पृष्ठ २७ । इव संसारं जाणिय मोहं सव्वायरेण चइऊण । तं झायह ससहावं संसरणं जेण णासेह ।। -तत्व समुच्चय, अध्याय ७, गाथांक १४, डा. हीरालाल जैन, वही, पृष्ठ २७ । जीवादिपयट्ठाणं समवाओ सो णिरुच्चए लोगो। तिविहो हवेइ लोगो अहमझिम उड्ढभेएण ॥ --कुन्द-कुन्द प्राभूत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गापांक ३६, कुन्दकुन्दाचार्य, जैनसंस्कृति संघ, शोलापुर, प्र० सं० १९६०, पृष्ठ १४४। ४. असुहेण णिरय-तिरियं सुह उबजोगेण दिविजणरसोक्खं । सुखण लहइ सिद्धि एवं लोयं विचितिज्जो । -कुन्द-कुन्द प्राभूत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, भाषांक ४२, बही, पृष्ठ १४४।
SR No.010103
Book TitleJain Hindi Puja Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAditya Prachandiya
PublisherJain Shodh Academy Aligadh
Publication Year1987
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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