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________________ ( ५४ ) मात्मा की रक्षा करता है इसलिए कर्मों के बन्ध उदय और सत्ता से रहित शुर मात्मा ही शरण है।' एकत्व भावना-जीव अकेला कर्म करता है, अकेला ही सुवीर्ष संसार में भ्रमण करता है, अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मरता है और अकेला ही अपने किए हुए कर्म का फल भोगता है। जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट अर्थात् रहित हैं, वे ही भ्रष्ट हैं। सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट जीव को मोक्ष नहीं होता जो चारित्र से भ्रष्ट हैं वे चारित्र धारण कर लेने पर मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं किन्तु जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट है वे मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकते ।' अन्यत्व-भावना-माता-पिता, सहोदर धाता, पुत्र, कलत्र आदि परिजनों का समूह जीव के साथ सम्बद्ध नहीं है, ये सब अपने-अपने कार्यवश होते हैं । यह शरीर आदि जो बाह्य द्रव्य है वह सब मुझसे भिन्न है। आत्मज्ञान दर्शन रूप हैं, इस प्रकार सधी धावक अन्यत्व का चिन्तवन करता है। १. जाइ-जर-मरण-रोग-भय दो रखेदि अप्पणो अप्पा । तम्हा आदा सरण बधोदय सत् कम्मवदिरित्तो ।। -कुन्द-कुन्द प्राभूत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गाथाक ११, कुन्दकुन्दाचार्य, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, प्र.स. १६६०, पृष्ठ १३८ । एक्को करेदि कम्मं एक्को हिंडदि य दीह संसारे । एक्को जायदि मरदि य तस्स फलं भुजदे एक्को ।। -- कुन्द-कुन्द प्राभृत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गायांक १४, पृष्ठ १३६, वही। ३. दसणभट्ठा भट्ठा दंसणभट्ठस्स गत्थि णिव्वाणं । सिज्झंति चरियभट्ठा दसणभट्ठा ण सिज्झंति ॥ ---कुन्द-कुन्द प्राभृत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गाथांक १६, वही । ४. माद्रा-पिदर-सहोदर-पुत्त-कलतादि बन्धु सदोहो। जीवस्य ण संबंधो णियकज्जवसेण वट्टति ॥ ~-कुन्द-कुद प्राभूत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गाथा २१, वही। ५. अण्णं इमं सरीरादिगं पि होज्ज बाहिरं दव्वं । णाणं दंसण मादा एवं चितेहि अण्णत्तं ॥ -कुन्द-कुन्द प्राभूत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गायांक २३, कुन्दकुन्दाचार्य, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, प्र० सं० १९६०, पृष्ठ
SR No.010103
Book TitleJain Hindi Puja Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAditya Prachandiya
PublisherJain Shodh Academy Aligadh
Publication Year1987
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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