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________________ ( ३१ ) १०. सजीव होते हुए भी नस और रोमों का समान रहना अर्थात् उनके न और केश बड़ा नहीं करते । ११. अठारह महाभावा तथा सात सौ शुद्रभावा युक्त दिव्य-ध्वनि अर्थात् केवल ज्ञान हो जाने पर उनको समस्त प्रकार का पूर्ण ज्ञान होता है, कोई भी विद्या, ज्ञान अपरिचित नहीं रहता । देवकृत तेरह अतिशयों का क्रम निम्न प्रकार है, यथा १. तीर्थकदों के महात्म्य से संख्यात योजनों तक असमय में ही पत्रफूल और फलों की वृद्धि से संयुक्त हो जाता है । २. कंटक और रेती आदि को दूर करती हुई सुखदायक वायु चलने लगती है । ३. जीव पूर्व-बंर को छोड़कर मंत्री- भाव से रहने लगते हैं । ४. उतनी भूमि दर्पण तल के सदृश स्वच्छ और रत्नमय हो जाती है । ५. सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से मेघ कुमार देव सुगन्धित जल की वर्षा करते हैं । ६. देव - विक्रिया से फलों के भार से नवीभूत शालि और जो आदि सस्य की रचना करते हैं । ७. सब जीवों को नित्य आनन्द उत्पन्न होता है । ८. वायु कुमार देव विक्रिया से शीतल पवन चलता है । ९. कूप और तालाब आदिक निर्मल जल से पूर्ण हो जाते हैं । १०. आकाश ! उल्कापातादि से रहित होकर निर्मल हो जाता है । सम्पूर्ण जीवों को रोग आदिक बाधाएं नहीं होती हैं । ११. १२. यक्षेन्द्रों के मस्तकों पर स्थित और किरणों से उज्ज्वल ऐसे चार fter धर्म चक्रों को देखकर जनों को आश्चर्य होता है । तीर्थकरों के चारों दिशाओं में छप्पन सुवर्ण कमल, एक पादपीठ और fear एवं विविध प्रकार के पूजन द्रव्य होते हैं ।" १३. १. निलोयपण्णत्ति, यतिवृषभाचार्य, अधिकार संख्या ४, गाथा संख्या ८ से, जीवराज ग्रन्थमाल, शोलापुर प्रथम संस्करण, वि० सं० १६६६ । २. तिलोयपण्णत्ति, यति वृषभाचार्य अधिकार संख्या ४, गाथांक ९०७ से ६१४. जीवराज ग्रन्थमाला शोलापुर, प्रतम संस्करण वि० सं० १९६६ ।
SR No.010103
Book TitleJain Hindi Puja Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAditya Prachandiya
PublisherJain Shodh Academy Aligadh
Publication Year1987
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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