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________________ ( १० ) errera का अभिषेक कर नंदीश्वर पर्व आदि पर्वो पर जिन महिमा करना काल पूजा कहलाती है ।' मन से अर्हन्तादि के गुणों का चितवन करना भावपूजा कहलाती है। भावपूजा में जो परमात्मा है, वह ही मैं हूं तथा जो स्वानुभवगम्य मैं हूँ, वही परमात्मा है, इसलिए में ही मेरे द्वारा उपासना किया जाने योग्य हैं, दूसरा कोई अन्य नहीं। इस प्रकार ही आराज्यAries are ft व्यवस्था है ।" आगम-शास्त्र परम्परा के आधार पर पूजा का प्रचलन श्रमण-संस्कृति के मारम्भ से ही रहा है। श्रमण संस्कृति सिन्धु, मिश्र, बेबीलोन तथा रोम की संस्कृतियों से कहीं अधिक प्राचीन है। भागवतकार ने आद्यममु स्वायम्भुव के प्रपौत्र नाभि के पुत्र ऋषभ को दिगम्बर भ्रमण और ऊर्ध्वगामी सुनियों के 'धर्म का आदि प्रतिष्ठाता माना है। उनके सौ पुत्रों में से नौ पुत्र श्रमण सुनि बने । मोहन जोदड़ो की खुदाई में कुछ ऐसी मोहरें प्राप्त हुई हैं, जिन पर १. गव्भावयार-जम्मा हिसेय गिक्खमण णाण- निव्वाणं । जम्हि दिणे संजादं जिणण्ह वणं तहिणे कुज्जा | दीसरट्ठवसे तहा अण्णेसु उचिय पव्वेसु । जं कीरइ जिणमहिमा विष्णेया काल पूजा सा ॥ - श्रावकाचार, आचार्य वसुनंदि, गाथांक ४५३, ४५५, वहाँ । भावपूजा मनसा तद्गुणानुस्मरणं । - भगवती आराधना, आचार्य अमितगति, गाथा ४७, पंक्ति संख्या २२; सखारामदोसी, शोलापुर, प्रथम सं०, सन् १९३५ ई०, पृष्ठांक १५६ । ३. यः परात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्ततः । महमेव मयोपास्यी नान्यः कश्चिदिति स्थितिः ॥ समाधिशतक, वीरसेवा मंदिर, देहली, प्रथम संस्करण १९५८ ई०, श्लोक संख्या ३१ । ४. भारत में संस्कृति एवं धर्म- डा० एम० एल० शर्मा, रामा पब्लिशिंग हाउस, बड़ौत (मेरठ), प्रथम संस्करण, १६६६, पृष्ठ ७७ । ५. नवाभवन् महाभागाः मुनयोर्थशंसिनः । श्रमणाः वातरशनाः मात्म विद्याविशारदाः ॥ - श्रीमद्भागवत, महर्षि वेदव्यास, एकादश स्कन्ध, मध्याय द्वितीय, श्लोक बीस, पो० गीता प्रेस, गोरखपुर, पंचम संस्करण संवत् २००६ पृष्ठ ६६९ ।
SR No.010103
Book TitleJain Hindi Puja Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAditya Prachandiya
PublisherJain Shodh Academy Aligadh
Publication Year1987
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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