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________________ (€) नाकार वस्तु में अरहन्तादि के गुणों का जो आरोपण किया जाता है, उसे सद्भाव स्थापना पूजा कहा जाता है और अक्षत वराटक अर्थात् कौड़ी या कमलगट्टा आदि में अपनी बुद्धि से यह अमुक देवता है, ऐसा संकल्प करके उच्चारण करना तो यह असद्भाव स्थापना पूजा कहलाती है । जलादि द्रव्य से प्रतिमादि द्रव्य की जो पूजा की जाती है, उसे द्रव्य पूजा कहते हैं । द्रव्य पूजा सचित, अचित तथा मिश्र मेद से तीन प्रकार की कही गई है। प्रत्यक्ष उपस्थित जिनेन्द्र भगवान और गुरु आदि का यथायोग्य पूजन करमा सचित पूजा कहलाता है। तीर्थंकर आदि के शरीर की और फागन आदि पर लिपिबद्ध शास्त्र की जो पूजा की जाती है, वह अचित पूजा है और जो दानों की पूजा की जाती है, वह मिश्र पूजा कहलाती है। जिनेन्द्र भगवान को जन्म कल्याणक भूमि, निष्क्रमण कल्याणक भूमि, केवल ज्ञानोत्पत्ति स्थान, तीथंचिह्न स्थान और निधिका अर्थात् निर्वाण भूमियों में पूर्वोक्त प्रकार से पूजा करना वस्तुतः क्षेत्रपूजा कहलाती है। जिस far तीर्थंकरों के पंचकल्याणक - गर्म, जन्म, तप, ज्ञान तथा निर्वाण-हुए हैं, १. सम्भावासम्भावादुविहा ठवणा जिणेहि पण्णत्ता | सायारवं तवत्थुम्मि जं गुणारोवणं पढ़मा ॥ अक्खय - वराडओ वा अमुगो, एसोति णियवुद्धीए । संकप्पिऊण वयणं एसा विइया असवभावा ॥ २. - श्रावकाचार - आचार्य वसुनंदि, गाथांक ३८३-३८४, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथम संस्करण, वि० सं० २००७ । दव्वेण य दव्वस्स य जापूजा जाण दव्वपूजा सा । दव्वेण गंध-सलिलाइ पुन्वभणिएण कायध्वा ॥ तिविहा दव्वे पूजा सच्चिता चितमिस्सभेएण । पच्चखजिणाईण सचित पूजा जहा जोग्गं ॥ तेसि च सरीराणं दव्बसुदस्सवि अचित पूजा सा ॥ जा पुण दोण्ह कीरइ णायव्वा मिस्स पूजा सा ॥ - श्रावकाचार, आचार्य वसुनंदि, गाथांक ४४८, ४४६, ४५०, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथम संस्करण वि० सं० २००७ । ३. जिण जम्मण - जिक्खमणे णाणुप्पतीए तित्थ चिन्हेसु । णिसिहीसु खेतपूजा पुव विहाणेण कायव्वा ॥ --- श्रावकाचार, आचार्य वसुनंदि, गायांक ४५२, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथम संस्करण, वि० सं० २००७ ।
SR No.010103
Book TitleJain Hindi Puja Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAditya Prachandiya
PublisherJain Shodh Academy Aligadh
Publication Year1987
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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