SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 287
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ । २७०) पूर्वक कायोत्सर्ग करने से माला का आत्मीय सम्बन्ध चैतन्य भागों की सन्निकटताका सम्बन्ध प्रकरण रूप में हो जाता है और भगवान की पूजा की भूमिका संचार हो जाती है। यह मनावमानिक सत्य है कि पूजक के मन में बहिर्षदा के व्यापार सम्बन्धी ममता का पूर्ण उत्सर्ग हुए बिना उसमें वास्तविक पूजा की क्षमता उत्पन्न नहीं हो सकती। मतब भगवान में पूर्णतः तन्मय हो जाता है उस समय बचन-प्रवृत्ति मी प्रायः सहो जाती है। यद्यपि यह स्थिति सामान्य पूजक को क्षणिक ही हो पाती है तथापि उसका पुण्य-बन्ध हो जाता है और अपूर्व शान्ति को अनुभूति हुआ करती है । पूजा में अन्तर्भक्ति के साथ बाह्य मंत्रों, द्रव्य, वचन विषयक मालम्बन को भी सार्थकता है क्योंकि बच्चन के बिना न्यास लोकव्यवहार प्रवर्तन का कोई अन्य उपाय भी नहीं है। ग्य और भाव मेद से नमस्कार भी दो प्रकार का होता है। हाथ-जोर शिरोमति करना वस्तुतः द्रव्य नमस्कार है और बाह्य किसी भी किया किए बिना मात्र अपने अन्तर्भाव पूज्य में लगाना वस्तुतः माव नमस्कार कहलाता है। भाव नमस्कार भी दो प्रकार का होता है, यथा २. अदंत परमेष्ठी के गुण चितवन पूर्वक सम्मान करना देस नमस्कार है जब कि पूज्य और पूजक में चैतन्य स्वरूप को तब पता अर्थात् पूज्य और पूजक में एकतानता प्रकट हो जाती है उसे वस्तुतः अद्वैत भाव नमस्कार कहते हैं। देवशास्त्र गुरु की पूजा शुभ उपयोग के लिए प्रमुख साधन है। भावश्यकता यह है कि लक्ष्य में शुद्ध उपयोग हो तभी पूजा की सार्थकता है। पूजा में बाह्य-क्रिया पर उतना बल न देकर शुद्ध-मावों पर पहुंचने का लक्ष्य होना सर्वथा हितकारी होता है। इसके लिए मादरूप परमेष्ठी का ध्यान जाना अत्यन्त स्वामाषिक है फलस्वरूप उनको आराधना अनिवार्य है। जिस समय परमेष्ठी का चिन्तन-मनन-पूजन और अनुभव होता है उस समय तो अति शुभ परिणामों के होने से पाप होता ही नहीं, इसके अतिरिक्त पूर्व संचित पापों की स्थिति और अनुमाग भी नीम होकर मल्ल रहमानी है। भविष्य के लिए भीपाका मन और बी स्थिति पूर्व सवय होने से बचाता है।
SR No.010103
Book TitleJain Hindi Puja Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAditya Prachandiya
PublisherJain Shodh Academy Aligadh
Publication Year1987
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy