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________________ ( २५६) मोर रेक पूजन दोनों का एक साल चलना समय नहीं हैं। भाराव्य पूजन के लिए अपने में पात्रता का उदय करना भी मावश्यक है । इसलिए प्रवकके आचार मैं सबसे पहिले सप्तम्बसन' का त्याग अनिवार्य है क्योंकि इसके बिना चित की चंचलता शान्त नहीं हो सकती । चंचल चित में वीतराम और वीतरागता के भावोग्य होना सम्भव नहीं। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि जो व्यक्ति पूजा करता है, अन्तरंग से पूजा का भाव मिसके होता है उसके गुभ-भाव मन्दिर में पहुंचकर ही उत्पन्न हों यह मात्र सत्य नहीं है। वास्तविकता यह है कि उसके अन्तर में पूजा सम्बन्धी संस्कार तो सातत्य विशुद्धि के कारण सर्वदा विद्यमान रहते हैं। पूजक जब शारीरिक क्रिया से निवृत्त होकर घर से मन्दिर जी को प्रस्थान करता है तब उसके परिणामों में और भी अधिक निर्मलता बढ़ती है। भावगाम्भीर्य, वचन में समिति, चलने में सावधानो और क्या को एति हमा करती है। मार्ग में बलते समय उसका मनोभाव तन्य की उत्सुकता से माप्लावित हो जाता है। मार्ग में विषय कवाय की बात न बह जानता है और न करता ही है। यदि धर्म सम्बन्धी कोई बात करना आवश्यक होती तो भाषा समिति पूर्वक वह संक्षेप में उसे समाप्त कर स्वयं लक्ष्योन्मुख हो जाता है। जिनालय में प्रवेश करते ही उसे निःसहिः, नि:सहिः, निःसहि, शम्द का उच्चारण करना चाहिए । इसका अभिप्राय यह है कि देव पूजन में राम वेषजन्य किसी प्रकार का व्यवधान अथवा संकट उत्पन्न न हो। यदि पूजक का मन परकीय पदार्थों के प्रति आकृष्ट है तो उसका चित बोतरागमय नहीं हो सकता, अस्तु, पूज्य परमेष्ठियों के स्मरण और नमस्कार १. अशुभ में हार शुभ में जीत यहै यूत कर्म, देह की मगनताई, यह मांस भखियो। . मोह की महल सौं अजान यह सुरापान, कुमति की रीति गणिका की रस चखियो । मिर्दय ह प्राण घात करबो मह शिकार, पर-नारी संघ पर-बुद्धि को परखियो। प्यार सौं पराई सौंज गहिवे की चाह चोरी, एई सातों व्यसन विडारि ब्रह्म लबिबी ॥ --समयसारनाटक, बनारसीदास, श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याम मन्दिर ट्रस्ट, सोनगड़ (सौराष्ट्र), प्रथम स्करण.बि.सं.२०२७, पृष्ठ ३४७ ।
SR No.010103
Book TitleJain Hindi Puja Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAditya Prachandiya
PublisherJain Shodh Academy Aligadh
Publication Year1987
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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