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________________ अपनी बात जिज्ञासा मनुष्य की स्वयंभू मनोवृत्ति है। ज्ञानार्जन का मूलाधार यही जिज्ञासा प्रवृत्ति होती है। मनुष्य अजित शान की अभिव्यक्ति भारम्भ से करता आया है। सत्यं शिवं सुन्दरं से समन्वित अभिव्यञ्जना साहित्य है। जैन हिन्दी काव्य में प्रयुक्त काव्य रूपों को मूलतया दो वर्गों में विभक्त कर सकते हैं.बर और मुक्त । बद्ध वर्ग में वर्णनात्मक काव्यरूपों में पूजाकाव्य रूप का स्थान अपनी स्वतंत्र उपयोगिता के कारणवश सुरक्षित है। पूजा वस्तुतः एक भक्त्यात्मक लोक काव्य रूप है । लोक कण्ठ से होता हुआ यह काव्य रूप मनीषी साहित्य में समाहत हुआ है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश से होता हुमा यह काव्य रूप हिन्दी में अवतरित हुआ है । इतनी महत्वपूर्ण काव्यधारा का अभी तक वैज्ञानिक तथा सैद्धान्तिक रूप से अध्ययन नहीं हुआ था। इसी अभाव ने मुझे इस ओर प्रवृत्त होने के लिए प्रेरित किया। आगरा विश्वविद्यालय ने सन् १९७८ ई० में इस शोध प्रबन्ध पर मुझे पी-एच डी० की उपाधि प्रदान की है । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ० सत्येन्द्र, डॉ. रामसिंह जी तोमर, डॉ० अम्बाप्रसाद जी 'सुमन', डॉ० श्रीकृष्णजी वाष्र्णेय आदि विद्वानों की इस प्रबन्ध पर प्रदत्त आशंसा मेरे श्रम का परिहार करती है। पूज्य पिता श्री डॉ. महेन्द्र सागरजी प्रचण्डिया की सतत प्रेरणा प्रोत्साहन और विद्वता ने मुझे इस अशात पथ पर अग्रसर होने का साहस प्रदान किया है। उनके इस ऋणत्व से विमुक्त होना असम्भव है। बय म. विद्यानिवास जी मिश्र, कुलपति, काशी विद्यापीठ, वाराणसी के लिए क्या कहूं जिनका स्नेहाशीष मुझे अन्त तक मिलता रहा है। उन्हें धन्यवाद देकर अपने सम्बन्धों की अभिनता को मैं कम नही करना चाहता । डॉ. कस्तुरचन्द्र जी कासलीवाल का किन शब्दों में स्मरण करू' जिन्होंने प्रस्तुत प्रबन्ध की भूमिका लिवकर मुझे उपकृत किया है। श्रद्धेय श्री जैनेन्द्र जी का तो
SR No.010103
Book TitleJain Hindi Puja Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAditya Prachandiya
PublisherJain Shodh Academy Aligadh
Publication Year1987
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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