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________________ i pa j व्यवहार का कोई विशेष उद्देश्य नहीं रहा है। अभिव्यक्ति में इन अलंकारों के सहज प्रयोग से अर्थ में जो उत्कर्ष उत्पन्न हुआ है, इन कवियों को यही इष्ट रहा है। वास्तविकता यह है कि पूजा काव्य में अलंकारों के अतिशय उपयोग से aroorfroofक्त को बोझिल नहीं होने दिया है। यहाँ हम कथित पूजा- काव्यकृतियों में अर्थालंकारों का अकारादि कम से इस प्रकार अध्ययन करेंगे कि प्रत्येक अलंकार के रूप-स्वरूप का सम्यक् उद्घाटन हो सकें। इस क्रम में अतिशयोक्ति अलंकार का सर्वप्रथम अध्ययन करेंगे । अतिशयोक्ति- जैन - हिन्दी -पूज. काव्य में उन्नीसवीं शती के पूजाकाव्य के रचयिता वृंदावन ने 'श्रीचन्द्रप्रभु जिनपूजा' नामक पूजाकाव्य कृति में अतिशयोषित अलंकार का सफल प्रयोग किया है। इस शती के अन्य कवि मनरंगलाल रचित श्री अनंतनाथ जिनपूजा' और 'श्रीनेमिनाथ जिनपूजा" नामक पूजा काव्य कृतियों में अतिशयोक्ति अलंकार प्रयुक्त है । १. ताको वरणत नहि लहत पार । तो अंतरंग को कहे सार । - श्री चन्द्रप्रभु जिनपूजा, वृन्दावन, संगृहीत ग्रन्थ -- ज्ञानपीठ पूजांजलि, अयोध्या प्रसाद गोयलीय, मन्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस १६५७, पृष्ठ ३३८ । २. जय जय अपार पारा न बार । गुथ कfथहारे जिह्वा हजार । - श्री अनन्तनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, संगृहीतग्रन्थ- ज्ञानपीठ पूजांजलि, अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मन्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, १९५७ ई०, पृष्ठ ३५६ । ३. तुम देखत पाप-पहार बिले । तुम देखत सज्जन कंज खिले ॥ - श्री नेमिनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, संगृहीतग्रन्थ- ज्ञानपीठ पूजाजलि, अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मन्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, १६५७ पृष्ठ ३७० ।
SR No.010103
Book TitleJain Hindi Puja Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAditya Prachandiya
PublisherJain Shodh Academy Aligadh
Publication Year1987
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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