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________________ अंगों का अध्ययन किया है। भाषागत अनेक रूप स्पष्ट किये गये हैं जिसमें अनेक शब्द पारिभाषिक अर्थ-अभिप्राय रखते हैं। इससे हिन्दी भाषा समन होती है। पूजा काध्य में व्यजित सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक स्वरूप का विश्लेषण भी किया गया है। भारतीय संस्कृति के विकास क्रम में जैन संस्कृति का आरम्भ से ही स्थान है, रचना से यह स्पष्ट हो जाता है। वैदिर. बोट और जैनधाराएँ मिलकर ही भारतीय संस्कृति के रूप का स्वरूप स्थिर करती है। आरम्भ में जैन संस्कृति को श्रमण संस्कृति के नाम से अभिहित किया जाता था। पूजा काव्य में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दावलि देकर लेखक ने प्रबन्ध के महत्व का संवद्धन किया है। साथ ही इस काव्य के पाठियों को उसके अर्ष-अभिप्राय को समझने में इससे पर्याप्त मदद मिलेगी। हिन्दी के अन्यान्य संत कवियों की नाई इन कवियों की भाषा भी विशेष अर्थ की व्यञ्जना करती है। भाषा के विकास अपवा हास क्रम से इस अध्ययन की सहायता असंदिग्ध है। प्रस्तुत प्रबन्ध अपनी भाव तथा कला सम्पदा से जहां एक ओर विद्वत् समाज को लाभान्वित करता है वहां भक्त्यात्मक समुदाय को भी शानालोक विकीर्ण करता है । मुझे भरोसा है इस उपयोगी प्रकाशन के लिए जनशोध अकादमी, अलीगढ़ के शुभ निर्णय का सुधी समाज यथेष्ट स्वागत करेगा। जैनेन्द्र कुमार १६-२-८६ दरियागंज, दिल्ली
SR No.010103
Book TitleJain Hindi Puja Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAditya Prachandiya
PublisherJain Shodh Academy Aligadh
Publication Year1987
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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