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________________ { let ) -१-मविशुद्धि २ --- विनयसम्पन्नर, तिचार, ४ - अमोक्ण ज्ञानोपयोग, ५-संवेग, ६- शक्तितत्स्वाग समाधि मात्र मर्हतुभक्ति/ १० ? ११ १२- प्रवचन भक्ति, १३- आवश्यक १४- सावन १५ - शक्तितराम, १६ --प्रवचन वत्सलत्य ये ह वीर प्रकृति के आभव के लिये हैं अर्थात् इनसे तीर्थंकर हरे जाता है। इन सोलह भावनाओं में से दर्शन विशुद्धि का होना अत्यन्त सावरक अन्य सभी भावनायें हों अथवा कम भी हों फिर भी तीर्थकर प्रकृति का हो सकता है । अथवा किन्हीं एक वो आदि भावनाओं के साथ सभी भावनायें हैं तथा अपायविचैव धर्मध्यान भी विशेष रूप से तीर्थकर प्रकृति बन्ध के लिए कारण माना गया है। यह ध्यान तपोभावना में ही मन्त हो जाता है।' 'सोलह' शब्द संख्या परक है। इसमें 'कारण' शब्द भी सार्थक है जिसका अर्थ है मोक्ष में कारण । इन सभी भावनाओं के चितवन से तीर्थकर प्रकृति का बन्ध होता है । अर्थात् संसार से मुक्त होकर सिद्ध गति प्राप्त करना । efear खानतरrय की धारणा है कि जो भी पूजक अथवा भक्त व्रत सोलह कारण पूजा करता है उसे शिव-पद की प्राप्ति होती है ।" इस प्रकार जैन मक्ति-भावना के प्रमुख उपादानों की उपयोगिता मठार. हवी शती के पूजाकारों द्वारा अपने काव्य में सफलतापूर्वक अभिव्यक्त हुई है। १- सम्यग्ज्ञान, हिन्दी मासिक, सोलहकारण अंक, सम्पादक पंडित मोतीलाल सेन शास्त्री, दि० जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर (मेरठ) वर्ष ५, अंक २, १६७८ ई०, पृष्ठ २ । २ - तत्वार्थ सूत्र, विवेचन कर्ता पं० सुखलाल संघवी, जैन संस्कृति संशोधन मंडल, हिन्दू fara fविद्यालय, बनारस-५, द्वितीय संस्करण १६५२, पृष्ठ २२० । सहीह भावना, सहित बरे कत जो देव-इन्द्र न च पय, यानत शिव पद होय ॥ - श्री सोलह कारण पूजा, च. नतरायः ज्ञानपीठ पूजपनि सारतीय व्रणपीठ, वाराणसी, प्रथमसंस्करण १९५७ ६०, पृष्ठ २०१
SR No.010103
Book TitleJain Hindi Puja Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAditya Prachandiya
PublisherJain Shodh Academy Aligadh
Publication Year1987
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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