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________________ की महिमा स्थिर करते हुए उसे शिवसुख प्राप्ति का प्रमुख आधार माना है।' उपयंकित विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जैन कवियों ने भक्ति के विभिन्न स्वरूपों का प्रवर्तन कर स्व-पर कल्याण की मंगल कामना की है। जैन धर्म में पूजा की परम्परा संस्कृत-प्राकृत से होकर हिन्दी में अवतरित हुई है। अठारहवीं शती से बीसवीं शती तक पूजा-काव्य की यह सुदीर्घ परम्परा हिन्दी काव्य को समृद्ध बनाती है। मैनधर्म ज्ञान प्रधान होते हुए भी भक्ति को अंगीकार करता है। यहां उल्लेखनीय बात यह है कि ज्ञान को भी भक्ति की गई है ज्ञान प्राप्त्यर्थ भक्त अथवा पूजक जिनेन्द्र भगवान की पूजा करता है। पूजा में आराध्य के गुणों में बवान का होना आवश्यक बताया गया है। जैन दर्शन में मूलतः गुणों की पूजा की गई है। पर-पदार्थों के कार्य-व्यापार को प्रयोगशाला वस्तुतः संसार है। यहाँ इन पदार्थों के प्रति राग रखने से कर्मबन्ध होने की बात कही गई है। उल्लेखनीय बात यह है कि जिनेन्द्र भक्ति में अनुराग रखने से कर्मबन्ध की छूट है। भक्त अथवा पूजक जिनेन्द्र देव के गुणों का चिन्तवन कर उन्हीं में तन्मय हो जाता है फलस्वरूप उसके बन्ध मुक्त होते है, नए कर्म-बन्ध के लिए प्राय: अवकाश ही नहीं मिलता। जैनागम में उल्लिखित भक्तियों के सभी स्वरूपों का प्रयोग हिन्दीजैन-पूजा-काव्य में परिलक्षित है । देवशास्त्र गरू की पूजा का अतिशय महत्त्व है क्योंकि इस पूजा में अधिकांश रूप में भक्ति-मेदों का समन्वय मुखरित है। निर्गुण तथा सगुण ब्रह्म के रूप में दो प्रकार की भक्ति सभीधर्मों में मानी गई है किन्तु जैनधर्म में इनके पृथक् अस्तित्व होते हुए भी इनका अन्तरंग एक ही बताया गया है । निराकार आस्मा में और वीतराग साकार भगवान में समानता का विधान एक मात्र जैन पूजा की नवीन उभावना है, यह अन्यत्र कहीं सम्भव नहीं है। सिद्धभक्ति में निष्कल ब्रह्म तथा तीर्थकर भक्ति में १- नदीश्वर जिनधाम, प्रतिमा महिमा को कहै। द्यानत लीनो नाम, यहे भगति शिव सुखकरें । -श्री नदीश्वर द्वीप पूजा, धानतराय, जैन पूजा पाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ ५८ ।
SR No.010103
Book TitleJain Hindi Puja Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAditya Prachandiya
PublisherJain Shodh Academy Aligadh
Publication Year1987
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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