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________________ ( oc तथा धर्मसेन नामक दो पुत्र हुए। मित्रसेन - ती था और उससे केवल दो था उससे भी दो पुत्र उत्पन्न हुए थे। उनमें नायक था । श्रना की धर्मपत्नीका नाम गवानदास था, जो बड़ा ही प्रतापी और संघका अधिप्रथम पुत्रका नाम भारा पुत्र हरिवंश भी धर्म प्र ेमी और गुण सम्पन था । नाम केशरिदे था, उससे तीन पुत्र उत्पन्न हुए थेभगवानदासदास और मुनिसुव्रत । संघाधिप भगवानदासने जिनेन्द्र महासेन, प्रतिष्ठा करवाई थी और संघराजकी पदवीको भी प्राप्त किया भगवान वह दान-मानमें कके समान था । इन्हीं भगवानदासकी प्रेरणाले "पंडित रूपचन्द्रजीने प्रस्तुत पाठकी रचना की थी। पांडे रूपचन्द्रजी ने इस sirat प्रशस्ति सिंह नामके अपने एक प्रधान शिष्यका भी उल्लेख किया है पर वे कौन थे और कहां के निवासी थे, यह कुछ मालूम नहीं हो था सका । उक्त पाठ के अतिरिक्त पांडे रूपचन्द्रजी की निम्न कृतियोंका उल्लेख और भी मिलता है जिनमेंसे रूप चन्द शतक, पंचमंगल पाठ और कुछ जकड़ी आदि प्रकाशित हो चुके हैं, परन्तु 'नेमिनाथरासा' और अनेक निर्माण भी किया कराया गया है । सं० १५४० में श्रावणवदि १० को श्रावण वदि १० को मूलसंघ सरस्वतिगच्छके भ० जिनचन्द्रके प्रशिष्य भ० भुवनकोर्तिके समय गोलापूर्व जातिकं माहू सानपतिके सुपुत्र पहंपाने कर्मक्षयनिमित्त उत्तरपुराण लिखा था । यह ग्रन्थ नागौर भंडारमें सुरक्षित हैं । इन सब उल्लेखोंसे इस जातिको महत्ता और ऐतिहासिकताका भलीभांति परिज्ञान हो जाता है। आज भी इसमें अनेक प्रतिष्ठित विद्वान, त्यागी और श्रीमान पाये जाते है । अन्वेषण होने पर इस जातिके विकास आदि पर विशेष प्रकाश पड सकता है। चंदेरी और उसके आस-पासके स्थानोंमें भी इस जातिके अनुयायी रहे हैं । x पंचमंगलपाठ अर्थ सहित प्रकाशित हो चुका है, कुछ जकड़ी और रूपचन्द शतक पं० नाथूरामजी प्रेमीने 'जैनहितेषी' मासिक पत्रमें प्रकाशित किये थे; उनके अच्छे संस्करण निकालने की आवश्यकता है । -
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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