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________________ कविन इस पाठको रचना प्राचार्य के प्रादिपुराणगत 'समवसरण' विषयक कथनको दृष्टिमें रखते हुए की प्रस्तुत ग्रन्थ दिल्लीके बादशाह जहांगीरके पुत्र शाहजहांके राज्यकालमें, सं२१६७२ के अश्विन महीनेके कृष्णपक्षमें, नवमी गुरुवारके दिन, सिद्धयोगमार पुनर्वसु नक्षत्रमें समाप्त हुआ है। जैसाकि उसके निम्न पद्यसं स्पष्ट है : श्रीमत्संवत्सरेऽस्मिन्नरपतिनुतद्विक्रमादित्यराज्येऽतीते हगनंद भद्रांशुक्रतपरिमिते (१६७२) कृष्णपक्षेष मो (?) देवाचार्य प्रचारे शुभनवमतिथौ सिद्धयोगे प्रसिद्धे, पौनर्वस्वित्पुडस्थे (?) समवसृतिमहं प्राप्तमाप्ता समाप्तिं ॥३४॥ ग्रन्यकर्ताने इस पाठके बनवाने वाले श्रावकके कुटुम्बका विस्तृत परिचय दिया है। जो इस प्रकार है : मूलसंघान्तर्गत नन्दिसंघ बलात्कारगण, सरस्वतिगच्छके प्रसिद्ध कुन्दकुन्दान्वयमें वादीरूपी हस्तियोंके मदको भेदन करने वाले सिहकीर्ति हुए, उनके पट्टपर धर्मकोर्ति, धर्मकीर्तिके पद्दपर ज्ञानभूषण, ज्ञानभूषणक पट्ट पर भारती भूषण तपस्वी भट्टारकोंके द्वारा अभिवन्दनीय विगतदूषण भट्टारक जगत्भूषण हुए । इन्हीं भट्टारक जगद्भूषणकी गोलोपूर्व १ श्राभ्नायमें दिव्यनयन हुए । उनकी पत्नीका नाम दुर्गा था। उससे दो पुत्र हुए । चक्रपेन और मित्रसेन । चक्रसेनकी स्त्रीका नाम कृष्णा १ गोलापूर्व जाति जैन समाजकी ८४ उपजातियोंमें से एक है । इस जातिका अधिकतर निवास बुंदेलखंडमें पाया जाता है । यह जाति विक्रमको ११वी, १२वीं, १३वीं और १४वीं शताब्दीमें खूब समृद्ध रही है। इसके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियाँ सं० १२०२ से लेकर १९वीं शताब्दी तककी पाई जाती हैं। ये प्राचीन मूर्तियाँ महोबा, छतरपुर, पपौरा, आहार और नावई श्रादि के स्थानों में उपलब्ध होती हैं, जिन पर प्रतिष्ठा करने कराने आदिका समय भी अंकित है। इनके द्वारा निर्मित अनेक शिखरबन्द मन्दिर भी यन्त्र तत्र मिलते हैं जो उस जातिको धर्मनिष्ठाके प्रतीक हैं, अनेक ग्रन्थोंका
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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