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________________ ( ७५ ) संशोधन परिवर्धनादिके साथ 'संस्कृत पंचसंग्रह' नामक ग्रन्थ बनाया है। पं० श्राशाधरजीने मूलाराधनादर्पण नामकी टोकामें इस ग्रन्थको ५ गाथारा उद्धृत की हैं। प्राचार्य वीरसेनकी धवला टीकामें भी इस ग्रन्थकी मूल गाथाएँ समुन्द्र त पाई जाती हैं। जिससे ग्रन्थकी प्राचीनता पर प्रकाश पडता है। कसायपाहुडकी कुछ गाथाएँप्रायः ज्यों के-त्यों रूपमें और षट्खण्डागमके कुछ मूलसूत्रोंका विषय कहीं कहीं पर मिल जाता है। प्रकृति समुत्कीतन प्रकरणके गद्य मूत्र तो षट् ग्वण्डागमके सूत्रोंका स्मरण कराते ही है । उक्त पंचमंग्रहको टीकाके कर्ता भ० समतिकीति हैं, जो मूल संघमें स्थित नन्दिसंघ बलात्कारगण और सरस्वतिगच्छके भट्टारक ज्ञानभूषणके शिष्य थे। लक्ष्मीचंद्र और वीरचन्द्र नामके भट्टारक भी इनके सम-सामयिक थे । भट्टारक आन भूषण इन्हींक अन्वयमें हुए हैं। भ० सुमतिकीर्तिने प्रस्तुत ग्रन्थको टीका ईडर (ईलाव) के ऋषभदेवके मन्दिरमें वि० सं० १६२० भाद्रपद शुक्ला दशमीके दिन ममाप्त की थी। इस ग्रन्थका उपदेश उन्हें 'हंस' नामके वर्णीम प्राप्त हुअा था । इस टीकाका मंशोधन भी भ०ज्ञानभूषणने किया था। कर्मकाण्ड टीका . १६० गाथात्मक कर्मप्रकृति टीका को भी भ० सुमतिकीर्तिने ज्ञानभूषणके साथ बनाया था और उन्हींके नामांकित किया था। इनके अतिरिक्त 'धर्मपरीक्षारास' नामका एक ग्रन्थ और भी मेरे देखनमें पाया है, जिसकी पत्र संख्या ८३ है, जो गुजराती भाषामें पद्यबद्ध है और जिम्मकी रचना हांसौट नगरमें विक्रम सम्वत १६२५ में बन कर समाप्त हुई है । इसके सिवाय, ऐ. प. दि. जैन सरस्वतीभवन बम्बईकी सूचीमें 'उत्तर छत्तीसी' नामका एक संस्कृत ग्रन्थ और भी गणित विषय पर लिखा गया है और उसके कर्ता भी भ. सुमतिकीर्ति बतलाए गये हैं। मम्भव है कि यह भी उन्हींकी कृति हो । और भी उनकी रचनाएँ होंगी, पर वे सामने न होनेसे उनके सम्बन्धमें विशेष कुछ नहीं कहा जा सकता। सुमतिकीर्ति भी ईडरकी भट्टारकीय गहीके भट्टारक थे।
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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