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________________ मार्तण्ड बनायाः उस समय तक उनके न्याय विद्या गुरु भी जीवित थेx और उन्हें उनक अतिरिक्त अन्य विद्वानोंका भी सहयोग प्राप्त था, पर न्याय कुमुदचंद्रके लिखते समय उन्हें अन्य विद्वानोंके सहयोग मिलनेका कोई अभास नही मिलता और गुरु भी संभवतः उस समय जीवित नहीं थे। क्योंकि न्याय कुमदचंद्र सं० १११२ के बादकी रचना है कारण कि जयसिंह राजा भोज के बाद वि० सं० १११० के बाद किसी समय राज्यका अधिकारी हुश्रा है । जयसिंहने संवत् १११० से १११६ तक राज्य किया है। यह तो सुनिश्चित ही है इनके गज्यका सं० १११२ का एक दानपत्र भी मिला है। उसके बाद वह कहां और कब तक जीवित रहकर राज्य करते रहे यह अभी अनिश्चित है । अत. प्राचार्य प्रभाचंद्रने भी अपनी रचनाएं जिन्हें राजाभोज और जयसिंहके राज्यमें रचा हुश्रा लिखा है। म. ११०० से लेकर १११६ नकके मध्यवर्ती समयमें रची होंगी। शेष ग्रंथ जिनमें कोई उल्लेख नहीं मिलता, वे कब बनाये इस सम्बंधमें कोई जानकारी प्राप्त नहीं है।। इस सब विवेचन परसे स्पष्ट है कि प्रभाचन्द्र विक्रमकी 11वीं शताब्दीके उत्तरार्द्ध और १२ शताब्दीक पूर्वाद्ध के विद्वान हैं । ६५वीं प्रशस्ति 'प्राकृतशब्दानुशासन' की है जो स्वोपज्ञवृत्तिसे युक्त है और जिनके कर्ता कवि त्रिविक्रम हैं। ये कवि अर्हनंदी विद्य xजैसाकि प्रमेयकमलमार्तण्डके ३-११ सूत्रकी व्याख्यासे स्पष्ट है 'न च बालावस्थायां निश्चयानिश्चयाभ्यां प्रतिपन्नसाध्यसाधनस्वरूपस्य पुनर्वृद्धावस्थायां तद्विस्मृतौ तत्स्वरूपोपलम्भेऽप्यविनाभाव प्रतिपत्तेरभावात्तयोस्तदहेतुत्वम्। स्मरणादरपि तद्धतुत्वात् । भूयो निश्चयानिश्चयौ हि स्मर्यमाण प्रत्यभिज्ञायमानौ तत्कारणमिति स्मरणादरपि तबिमिसत्व. प्रसिद्धिः । मूलकारणत्वेन नपलम्भादेरनोपदेशः, स्मरणादेस्तु प्रकृतत्वादेव तत्कारणात्व प्रसिद्ध रनुपदेश इप्यभिप्रायो गुरूणाम् ॥' । -अनेकांत वर्ष ८, कि० १०,११
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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