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________________ को श्रादि लेकर अन्तिम बोरनाथ तक ३७ भव-सम्बन्धि-प्रबन्धरूप महावीर चरितको मैंने स्व-पर-बोधनार्थ बनाया है, जो महानुभाव इस वद्ध मानचरितको प्रख्यापित (प्रसिद्ध ) करता है, सुनता है वह परलोकमें सुख्ख प्राप्त करता है। कवि असगने अपना यह चरित सं० ११० में बनाकर समाप्त किया है। ग्रन्थकर्ताने मुनिनायक भावकीर्तिके पादमूलमें मौद्गल्य पर्वत पर रहकर श्रावकके व्रतोंका विधिवत अनुष्ठान पूर्वक ममता रहित होकर विद्या 'अध्ययन किया, जिससे मुनि भावकीर्ति अमगके विद्यागुरु थे । और बादमें चोड या चोल देशकी वरला नगरीमें जनताके उपकारक श्रीनाथके राज्यको पाकर जिनोपदिष्ट अाठ ग्रन्थोंकी रचना की है। वे आठ ग्रन्थ कौनसे है। यह प्रशस्ति परसे कुछ भी ज्ञात नहीं होता। प्रथम प्रशस्तिके चार पद्य तो वे ही है जो श.न्तिनाथपुराणकी प्रशस्तिमें ज्योंके त्यों रूपसं पाये जाते हैं। और जिनमें अपने माता पिनाके नामोल्लेखिके साथ शब्द समय रूप समुद्रक पारको प्राप्त होने वाले प्राचार्यनागनन्दीके, जिनका चन्द्रमाके समान शुभ्रयश लोकमें विद्यमान था, शिष्य थे। तथा सद्वृत्तके धारक, मृदुस्वभावी, और निश्रेयमक प्रार्थी श्री श्रार्यनन्दी गुरुकी सत्प्रणासे उक्र चरित ग्रन्थकी रचना की गई हैं। दूसरी शान्तिनाथ पुराणकी अन्तिम प्रशस्तिकं पद्यसे मालूम होता है है कि कविने सन्मतिचरित बनानेके बाद ही इस शान्तिनाथपुराणको रचना की है और उस रचनाका उल्लेख करते हुए बतलाया गया है कि कविका एक मित्र 'जिनाप्य' नामका था, जो ब्राह्मण होने पर भी पक्षपात रहित था, भव्यजनोंके द्वारा सेव्य. जिनधर्ममें श्रासन, बहादुर, और परलोक भीरु था, उम्मकी व्याख्यान शीलता और पुराणश्रद्धाको देखकर ही शान्तिनाथ पुराणकी रचना की गई है। कविकी ये दो ही रचनाए उपलब्ध हुई हैं। शेष ग्रन्थ अन्वेषणीय हैं प्रशस्तिमें इस ग्रन्थ की रचना का समय दिया हुआ नहीं है । पर इतना निश्चित है कि वह सं० ११० के बाद बनाया गया है।
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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