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________________ १०८ जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह (द्वितीय प्रशस्ति) कृतं महावीरचरित्रमेतन्मया पर-स्व-प्रतिबोधनार्थ । सप्ताधिकं त्रिंशभवप्रबंधं पुरूरवाद्यन्तिमवीरनाथ ॥१०३॥ बर्द्धमानचरित्र यः प्रव्याख्याति श्रुणोति च । तस्येह परलोकेऽपि सौल्यं संजायते तराम् ॥१०४॥ संवत्सरे दशनवोत्तरवर्षयुक्त(६१०) भावादिकीर्तिमुनिनायकपादमूले । मौद्गल्यपर्वतनिवासव्रतस्थसंपत्सच्छावकाजनिते सति निर्ममत्वे ॥१०॥ विद्या मया प्रपठितेत्यसगाहकेन श्रीनाथराज्यमखिलं-जनतोपकारि । प्रापे च चौडविषये वरलानगयो ग्रन्थाष्टकं च समकारि जिनोपदिष्टं ॥१०६॥ इत्यसगकृते वर्द्धमानचरिते महाकाव्ये महापुराणोपनिषदि भगवन्निर्वाणगमनो नामाष्टादशः सर्गः ॥ नोट-इन दोनो प्रशस्तियोका विशेष ऊहापोह सम्पादक-द्वारा जैनहितैषी भाग ११ के अन्तर्गत 'पुरानी बातोंकी खोज' शीर्षक लेखमालामें किया गया है ( देखो, उक्तलेखमालाका 'असगकृत वर्द्धमानचरित्रकी दो विभिन्न प्रशस्तियाँ' नामका ६ वॉ लेख, पृ० ३३६ से ३४३)। और उन्होंने इसे संवत् १६७६ आश्विनमासकी लिखी उस प्रतिपरसे लिया था जो किसी समय मूलसघी हर्षकीर्ति मुनिको थी ( देखो, रायल एशियाटिक सोसाइटी बम्बई बाचके जर्नलका ऐक्स्ट्रा नम्बर, सन् १८६४ )। * यह प्रशस्ति श्रारा जैनसिद्धान्तभवनकी एक ताडपत्रीय प्रतिपरसे ली गई है, जिसका प्रथम-सर्गात्मक आदिमाग खण्डित है। बम्बई के मन्दिरकी प्रतिमें भी यह प्रशस्ति साधारणसे पाठभेद तथा कुछ अशुद्धियोंके साथ पाई जाती है।
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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