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________________ यशोधरचरित्र-प्रशस्ति यावन्दोणी समस्तत्रिदशपतिवृतश्चारुचामीकराद्रिस्तावद्भव्यं विशुद्ध जगति विजयता काव्यमेतच्चिराय ॥१२॥ कायस्थ-पद्मनाभेन बुधपादान्जरेणुना। कृतिरेषा विजयता स्थेयादाचन्द्रतारकं ॥१३॥ [ इति श्रीपद्मनाभ-कायस्थ-विरचितं यशोधरचरित्र समाप्तम् ] यशोधरचरित्र ( वासबसेन मुनि) आदिभाग : जितायतीन् जिनान्नत्या सिद्धान् सिद्धार्थसंपदः । सूरीनाचारसपन्नानुगाध्यायास्तथा यतीन् ॥१॥ जनन्या समवेतस्य यशोधर-महीभुजः।। चरित पावन वक्ष्ये यथाशक्ति यथागम ॥२॥ सवशास्त्रविदा मान्यैः सर्वशास्त्रविशारदैः । प्रभंजनादिभिः पूर्व हरिषेण-समन्वितैः ।।३।। यदुक तत्कथ शक्यं मया बालेन भाषित । तथापि तत्क्रमामाज-प्रणामाजित-पुण्यतः ॥४॥ प्रोच्यमान समासेन संसारासातशातन।। वदता शृण्वता यच तत्सतः शृणुतादयत् ॥५॥ अन्तभाग :-- मारिदत्तादयश्चान्ये आर्यासघं तथैव च । सौधर्मादिकवयपर्यत नाकमाश्रिताः ॥१८७॥ "कृतिर्वासबसेनस्य वागडान्वयजन्मनः। १ यह प्रशस्ति-पद्य जैनसिद्धान्तभवन आराकी सं० १७३२ वाली एक प्रतिमे नही है किन्तु दूसरी मं० १५८१ की लिखी हुई उस प्रतिमें पाया जाता है जो रामसेनान्वयी भ० श्रीरत्नकीर्तिके प्रपधर और भ० लखमसेन के पट्टधर भ. धर्मसेनके समयमें लिखी गई है।
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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