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________________ (११०) 'नयास्तव स्यात्पदसत्यलांछिता रसोपविद्धा इव लोहधातवः । भवन्त्यभिप्रेतगुणा यतस्ततो भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः ।।' यह ६५ वा पद्य समुद्धृत किया है। इसके सिवाय पृष्ठ १५ पर ११ वीं शताब्दीके विद्वान श्राचार्य वीरनन्दीके 'चन्द्रप्रभचरित' का श्रादि मङ्गलपद्य+ भी दिया है और पृष्ठ १६ पर सज्जन-दुर्जन चिन्तामें 'नेमिनिर्वाण कान्य' के प्रथम सर्गका निम्न २० वां पद्य उद्धृत किया है गुणप्रतीतिः सुजनांजनस्य, दोषेष्ववज्ञा खलजल्पितेषु । अतो ध्रुवं नेह मम प्रबन्धे, प्रभूतदोषेऽप्ययशोऽवकाशः ।। उसी १६वें पृष्ठमें उल्लिखित उद्यानजलकेलि मधुपानवर्णन नेमिनिर्वाण राजीमती परित्यागादौ' इस वाक्यके साथ नेमिनिर्वाण और राजमती परित्याग नामके दो ग्रन्थोंका समल्लेख किया है। उनमेंसे नेमिनिर्वाणके ८ वें सर्गमें जलक्रीडा और १० वें सर्गमें मधुपानसुरतका वर्णन दिया हुआ है। हाँ. 'राजीमती परित्याग' नामका अन्य कोई दूसरा ही काव्यग्रन्थ है जिसमें उक्र दोनों विषयोंके कथन देखनेकी सूचना की गई है। यह काव्यग्रन्थ सम्भवतः पं० श्राशाधरजीका 'राजमती विप्रलम्भ' या परित्याग जान पड़ता है। क्योंकि उसी सोलहवे पृष्ठ पर 'विप्रलम्भ वर्णनं राजमती परित्यागादौ वाक्य के साथ उक्र ग्रन्थका नाम 'राजमनी परित्याग' सूचित किया है। जिससे स्पष्ट मालूम होता है कि उक्त काव्यग्रन्थमें 'विप्रलम्भ' विरहका वर्णन किया गया है । विप्रलम्भ और परित्याग शब्द भी एकार्थक है । यदि यह कल्पना ठीक है तो प्रस्तुत अन्यका रचनाकाल १३ वीं शताब्दीके विद्वान् पं० श्राशाधरजोक बादका हो सकता है। इन सब ग्रन्थोल्लेखोंसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि ग्रन्थकर्ता उल्लि. खित विद्वान् श्राचार्योंका भक्त और उनकी रचनाओंसे परिचित तथा उन्हींके द्वारा मान्य दिगम्बरसम्प्रदायका अनुसर्ता अथवा अनुयायी था। अन्यथा + श्रियं क्रियाद्यस्य सुरागमे नटत्सुरेदनेत्रप्रतिबिंबलांछिता । सभा बभौ रत्नमयी महोत्पलैः कृतोपहारेव स वोऽप्रजो जिनः ।
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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