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________________ ( १०६ ) इसी तरह 'कारणमाला' के उदाहरण स्वरूप दिया हुआ निम्न पद्य भी बड़ा ही रोचक प्रतीत होता है । जिसमें जितेन्द्रियताको विनयका कारण बतलाया गया है और विनयसे गुणोत्कर्ष, गुणोत्कर्षसे लोकानुरंजन और जानु सम्पदाकी श्रभिवृद्धिका होना सूचित किया है. वह पद्य इस प्रकार हैं जितेन्द्रियत्वं विनयस्य कारणं, गुणप्रकर्षो विनयाद वामते । गुण प्रकर्षेणजनोऽनुरज्यते, जनानुरागप्रभवा हि सम्पदः ॥ इस rat valvagत्तिमें कविने अपनी एक कृतिका 'स्वोपज्ञ ऋषभदेव महाकाव्ये' वाक्यके साथ उल्लेख किया है और उसे 'महाकाव्य ' बतलाया है, जिससे वह एक महत्वपूर्ण काव्य-ग्रन्थ जान पड़ता है, इतना ही नहीं कितु उसका निम्न पद्य भी उद्धृत किया है " यत्पुष्पदन्त-मुनि सेनमुनीन्द्रमुख्यैः पूर्वैः कृतं सुकविभिस्तदहं विधित्सुः । हास्यायकय ननु नास्ति तथापि संतः शृण्वंतु कंचन ममापि सुयुक्तिसूक्तम् । इसके सिवाय, कविने भव्यनाटक और प्रलंकारादि काव्य बनाए थे t परन्तु वे सब अभी तक अनुपलब्ध हैं, मालूम नहीं कि वे किस शास्त्रresent काल कोठरीमें अपने जीवनकी सिसकियाँ ले रहे होंगे । ग्रंथकर्ताने अपनी रचनाओं में अपने सम्प्रदायका कोई समुल्लेख नहीं किया और न यही बतलानेका प्रयत्न किया है कि उक्त कृतियों कब और किसके राज्यकालमें रची गई हैं ? हाँ, काव्यानुशासनवृत्तिके ध्यानपूर्वक समीक्षणसे इस बातका अवश्य श्राभास होता है कि कविका सम्प्रदाय 'दिगम्बर' था; क्योंकि उन्होंने उक्त वृत्तिके पृष्ठ ६ पर विक्रमकी दूसरी तीसरी शताब्दिके महान् आचार्य समन्तभद्रके 'बृहत्स्वयम्भू स्तोत्र' के द्वितीय पथको 'आगम आप्तवचनं यथा' वाक्यके साथ उद्धृत किया है । और पृष्ठ ५ पर भी 'जैनं यथा' वाक्यके साथ उक्त स्तवनका ॐ प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविषुः शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः । प्रबुद्धतत्त्वः पुनरद्भुतोदयो ममत्वतो निर्विविदे विदांवरः ||२||
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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