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________________ सता]. [७५ कह रहा हूँ, बाकी होना न होना मनुष्य के वश की बात नहीं है।। दो मिनिट बाद क्या होगा, यह कौन कह सकता है ! इसी प्रकार यह वस्तु शुद्ध है, यह वाक्य भी भाव-शुद्धि के अनुसार है, अर्थात् मेरी समझ से शुद्ध है। वास्तव में क्या है, यह कौन कह सकता है ! इत्यादि । । उपमा-समानता बतलाकर किसी अपरिमित वस्तुका परिणाम बताना । जैसे पल्योपमकाल, सागरोपमकाल । दो हजार कोसके गड्ढे में कोई छोटे छोटे रोम भर कर सौसौ वर्ष में निकालने नहीं बैठता । परन्तु असंख्य वर्षों के सम्झाने का यह तरीका है । असंख्य और अनन्त की संख्या के प्रयोग प्रायः इसी प्रकार किये जाते हैं। इस प्रकार दस प्रकार से शब्दों का सत्य अर्थ निणीत किया जाता है। नये प्रकरण में भी इस विषय में कुछ कहा जायगा । यह सत्य अपने अपने स्थान पर सत्य हैं । स्थानका खयाल न किया जाय तो असत्य हो जायेंगे । इसलिये प्रकरण आदि के अनुसार आशयका विचार करना चाहिये । इन दस भेदों के समझने से आशय के निकालने में कुछ सुभीता होजाता है। शब्दों की अर्थ-सूचक शक्ति सिर्फ इतने में ही समाप्त नहीं होजाती । कभी कभी प्रचलित अर्थ को छोड़कर बिलकुल जुदाही अर्थ लिया जाता है, और कभी कभी सुननेवालों के भावोंपर शब्दका अर्थ निश्चित रहता है । इस प्रकार शब्दोंके भयं तीन प्रकारके हैं। अभिधा, लक्षणा, व्यञ्जना; जिसमें अभिधा तो साधारण अर्थ है, लक्षणा और व्यञ्जना में विचार रहता है। जहाँ
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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