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________________ ६८ ] [ जैनधर्म-मीमांसा हुए तब उनने अर्जुन से कहा- 'तेरा गांडीव हमारे किस कामका ? तू इसे छोड़ दे ' । बस, अर्जुन ता तलवार उठाकर युधिष्ठिर का सिर काटने को तैयार हो गया ! श्रीकृष्ण वहीं खड़े थे उनने अर्जुन से. कहा- तू मूर्ख है, तुझे अभी तक धर्म का मर्म नहीं मालूम हुआ । तुझे अभी समझदारोंसे कुछ सीखना चाहिये । यदि I तू प्रतिज्ञाकी रक्षा करना ही चाहता है तो तू युधिष्ठिरकी निर्भत्सना कर, क्योंकि सभ्यजनों को निर्भर्त्सना मृत्यु के समान है । श्रीकृष्णने अर्जुनसे इस प्रकार प्रतिज्ञा भंग कराके धर्मकी रक्षा की । इतना ही नहीं, महाभारतका इतिहास ही बदल दिया । इस अनुचित प्रतिज्ञाको तुड़वाकर श्रीकृष्णने अच्छा ही किया, इसकेलिये उनकी युक्ति भी उस मौके के लिये ठीक ही है, परन्तु इससे भी अच्छी युक्ति यह मालूम होती है कि अर्जुन से यह कहा जाता कि 'मूर्ख, तेरी यह प्रतिज्ञा ही पाप है, तुझसे कोई कुछ भी कहे, परन्तु उसे मारडालने का तुझे क्या हक है ? अगर तू समझता है तो अपराध इस प्रकार बोलने का उसे दण्ड देने का अपने को अधिकारी के अनुकूल ही दण्ड देना चाहिये, परन्तु अपराध इतना बड़ा नहीं है कि किसी को मृत्युदंड दिया जाय ।' यहां तो युधिष्ठिर थे जिन के लिये भर्त्सना भी मृत्यु के समान थी परन्तु यदि कोई साधारण मनुष्य होता तो क्या उस का वध करना उचित कहलाता ? सच पूछा जाय तो यहां पर अर्जुनने युधिष्ठिरकी भर्त्सना करके भी अनुचित किया, क्योंकि युधिष्ठिर ने जो कुछ कहा उसे कहने का बड़े भाई के नाते उन्हें हक़ था; परन्तु अर्जुन को बड़े भाई का अपमान करने का हक़ न था । बल्कि उसने ऐसी
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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