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________________ [ ६१ सत्य ] मिलता है । उसका संक्षिप्तसार यहाँ दिया जाता है राजा श्रेणिक का पुत्र मेघकुमार जोश में आकर महात्मा महावीर के पास दीक्षित हो गया । साधु तो हो गया परन्तु राजकु मारपन की गंध न गई । वह चाहता था कि साधु हो जानेपर भी राजा - साधु कहलाऊँ और दूसरे साधु मेरा आदर करें। परन्तु महात्मा महावीर के संघ में श्रीमानों और ग़रीबों में भेद न था । इसलिये मेघकुमार की इच्छा पूरी न हुई; बल्कि नया साधु होनेसे उसकी बैठक सबके अंत में थी इसलिये आते जाते समय साधुओं के पैरोंकी धूलि उसके ऊपर पड़ती, इससे उसे कष्ट तो होता था सो ठीक हैं किन्तु उसका हृदय अपमान का अनुभव करता था । वह महात्ना महावीर के पास आया । महात्माजी ने सब बातें शीघ्र समझ लीं और मेघकुमार से कहा T " कुमार ! तुम भूल गये हो परन्तु मुझे सब बातें याद हैं. आज से तीसरे भव में तुम गंगातट के जंगल में हाथी थे । दावानल से मरकर तुम फिर हाथी हुए । फिर आग लगी, परन्तु इस बार तुम बचे, तब तुमने अपने झुंड को लेकर वृक्ष उखाड़कर एक मैदान बनाया जिससे जब आग लगे तब तुम उसमें जाकर रक्षा कर सको । एक बार फिर आग लगी परन्तु तुम्हारे पहुंचने के पहिले वह मैदान अन्य जानवरों से भर गया था । बड़ी मुश्किल से तुम्हें खड़े होने को जगह मिली । परन्तु थोड़ी देर बाद अङ्ग खुजाने के लिये तुमने पैर उठाया ही था कि उस जगह पर एक खरगोश आ बैठा, तुमने सोचा कि अगर मैं पैर रखूँगा तो बेचारा खरगोश मर जायगा इसलिये तुम ढाई दिन तक तीन पैर से खड़े
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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