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________________ ६० ] [ जैनधर्म-मीमांसा क्षति पहुँचा दी थी उसकी पूर्ति न हो पाई । इस प्रकार डॉक्टर की एक छोटीसी झूठ ने जीवन की आधी शक्ति बर्बाद कर दी । इसलिये मैं कहता हूं कि रोगी से या रोगी के अभिभावक से झूठ बोलने का नियम बड़ी सतर्कता से पालना चाहिये । सच बोलने से यह रोगी किसी दूसरे डॉक्टर के पास चला जायगा, इस अभिप्राय से झूठ बोलना तो और भी बड़ा अपराध है। इस अभिप्राय से झूठ बोलनेवाले लोग तो कसाई की कक्षा में चले जाते हैं । मतलब यह कि रोगांके कल्याणकी दृष्टिसे झूठ बोलने का विचार करना चाहिये और उसमें प्रमाद न करना चाहिये । जो बात शरीर के रोगी के लिये कही गई है, वही बात आध्यात्मिक रोगकेि विषय में भी समझना चाहिये। समझदार आदमी को धर्म के गुण अवगुण बता देनेसे वह धर्मको ग्रहण करता है और उसमें स्थिर रहता है । परन्तु कोई मनुष्य या व्यक्ति जब धर्मके इस स्वाभाविक सत्य विवेचनसे आकर्षित नहीं होता, बल्कि भड़कानेवाली मिथ्या बातोंसे वह ढोंगियों की तरफ आकर्षित होता है, तब धर्मगुरुको भी मिथ्याभाषण की ज़रूरत पड़ जाती है । वह उन्हें सदाचारी बनाने के लिये स्वर्ग और नरकके कल्पित चित्र बताता है । विश्वास पैदा करने के लिये सर्वज्ञ की कल्पना करता है, पूर्व जन्मकी कल्पित कथाएँ सुनाता है, मनके ऊपर असर डालकर पूर्व जन्मका स्मरण कराता है । इस प्रकार धर्मप्रचार के लिये वह मिथ्याभाषण करता है । परन्तु इस मिथ्याभाषण से लोगों का कल्याण ही होता है, इसलिये इस मिथ्याभाषण से सत्यत्रत में कोई धक्का नहीं लगता । इसका एक सुदर उदाहरण णायधम्मका में
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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