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________________ ३०८ ] [ जैनधर्म-मीमांसा अनर्थ-दंड है । अगर इन सब बातों को अनर्थ-दंड न माना जाय, तो दूसरी तरफ यह प्रश्न उठता है कि तब अनर्थ-दंड क्या है, जिसका त्याग किया जाय ? मनुष्य की प्रत्येक क्रिया में अर्थ और काम का साक्षात या परम्परा सम्बन्ध रहता ही है-इसलिये निरर्थक पाप किसी को भी नहीं कह सकते । इस प्रश्न की इस तरह जटिलता रहने पर भी यह बात निश्चित है कि यह एक व्रत है । इससे अहिंसा आदि व्रतों का बहुत कुछ संरक्षण हो सकता है। हाँ, इसकी सापेक्षता विशाल होने से इस पर गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है आचार्य उमास्वाति ने इस प्रकरण में 'अर्थ' शब्द का अर्थ किया है 'उपभोग-परिभोग' । इससे जो भिन्न हो अर्थात् जिससे उपभोग- परिभोग न होता हो वह अनर्थ हैं। इसके लिये जो दंडप्रवृत्ति मन-वचन-काय को किया हो वह अनर्थदंड है । उसका त्याग अनर्थ दंडविरति नाम का व्रत है । · उपभोग और परिभोग में पाँच इन्द्रियों के व्रत आते हैं, किन्तु इन्द्रियाँ पाँच ही नहीं हैं, छः हैं। मन एक महान इन्द्रिय है, इसका विषय भी विशाल है - इसलिये 'अर्थ' शब्द का अर्थ करते समय इसके विषय को भी ध्यान में रखना चाहिये । बहुत से काम ऐसे हैं कि जो सष्ट हो अनर्थ दंड मालूम होते हैं। जैसे हमारे हाथ में लकड़ी है और रास्ते में कोई पशु खड़ा है तो बहुत से लोग बिना किसी प्रयोजन के या आवेशवश * उपमांग परिभोगी अस्यागारिणोऽर्थः । तयतिरिक्तोऽनर्थः । - त० मास्य - ७- १६ ।
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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