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________________ गृहस्थधर्म ) [ ३०७ भीतर कैद न रहना चाहिये । एक त पुराने जमाने की तरह निवृतिप्रधान बनना कठिन है, फिर एकान्त-निवृत्ति ही तो धर्म नहीं है। धर्म की एक बाजू निवृत्ति है और दूसरी बाजू प्रवृत्ति है, इसलिये भी इसको व्रत-रूप में रखने की कोई ज़रूरत नहीं है । देशविरति-यह व्रत भी दिग्विरति के समान दिशाओं की मर्यदा बनाने के लिये है । अन्तर इतना ही है कि दिग्विरति की मर्यादा जीवन भर के लिये होती है और इसकी मर्यादा अमुक समय के लिये होती है । इमलिये इसका क्षेत्र भी छोटा रहता है। इसमें दिन दो-दिन आदि के लिये मर्यादा ली जाती है, इसलिये छोटे क्षेत्र की रहती है । आचार्य समन्तभद्र ने इसका नाम देशाबकाशिक रक्खा है । देशवत या देशविरति कहने से कभी कभी बारह ही व्रतों का भान होता है, इसलिये सामान्य देशवत और इस विशेष देशव्रत में अन्तर नहीं मालूम होता, इसलिये इसका नाम देशाववाशिक कर दिया, यह टीक ही किया है । परन्तु जिन कारणों से दिग्नत अनावश्यक या-उन्हीं कारणों से यह भी अनावश्यक है। अनर्थ-दंडविरति-निरर्थक पापों का त्याग अनर्थ-दंडवि. रति है । परन्तु निरर्पक में जो 'अर्थ' शब्द है-उसका अर्थ अनिश्चित है । अनेक जैनाचार्यों ने इस व्रत के नाम पर इतनी अधिक बातों का उल्लेख कर दिया है और उनके व्यावहारिक रूपों को इतना अस्पष्ट रक्खा है कि इसे व्रत-रूप में स्वीकार करना कठिन हो जाता है । बहुत से लोगों के मत में ऐसा भ्रम है कि वास्थ्य के लिये वायु-सेवन करना, तैरना, दौड़ना, कूदना आदि भी
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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