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________________ परिषह - विजय ] [ २९७ अलग ही लेना चाहिये था। यह भी सम्भव है कि प्रारम्भ में- जब कि परिषों की गणना की गई हो उस समय-केशलोंच का रिवाज़ न हो । प्रज्ञा - विद्वान् और बुद्धिमान होने से मनुष्य में एक प्रकार का अहंकार आ जाता है । यह उसके अधःपतन का मार्ग है तथा समाज हित का नाशक है, इसलिये ऐसा अहंकार न आना चाहिये । यहाँ प्रज्ञा उपलक्षण है इसलिये किसी भी तरह का विशेष गुण जिससे अहंकार पैदा हो सकता है, वह सब प्रज्ञा शब्द से समझना चाहिये । अज्ञान- अज्ञान की व्याख्या भी गुणाभावरूप करना चाहिये । प्रज्ञा से यह उल्टा है । उसमें गुण के अहंकार का विजय करना पड़ता है और इसमें गुणाभाव से जो दीनता, निराशा, अपमान, अपमान से पैदा होनेवाली कवाय आदि का अनुभव करना पड़ता है, उस पर विजय की जाती है । अदर्शन- अविश्वास पर विजय प्रास करना अदर्शन-परिवह है । धर्म मनुष्य को सदाचारी बनाना चाहता है । इसलिये वह स बात की घोषणा करता है कि सदाचार, संयम, तप आदि से सब प्रकार की उन्नति होती है। सैकड़ो मनुष्य मिलकर जो काम कर सकते हैं, जो जान सकते है-वह सब तपस्त्री की भद्धियों और अलौकिक प्रत्यक्षों के आगे कुछ नहीं है । इस आशा से सैकड़ों मनुष्य अपने जीवन को सदाचारमय बनाते हैं और जब उन्हें सदाचार का मर्म समझ में आ जाता है तब वे समझ जाते हैं कि ऋद्धियों आदि की बात तो निरर्थक है, सदाचार से इनका कोई
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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