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________________ २९६ ] [ जैनधर्म मीमांसा विधान किया गया है, इसलिये याचना करना ही वास्तव में परिषद 'कहलायी - जिस पर विजय प्राप्त करना है । याचना न करना परिषह नहीं है, क्योंकि उससे किसी मानसिक कष्ट का सामना नहीं करना पड़ता । इसीलिये परिषह का नाम याचना है, न कि अयाचना | इस ग्रन्थ के अनुसार तो मुनियों का कार्यक्षेत्र विशाल है तथा मुनियों का धर्म गृहस्थों के लिये भी उपयोगी है, इसलिये याचनापरिषद का क्षेत्र विशाल है । भोजन के विषय में भिक्षावृत्ति अनिवार्य न होने से उस विषय में आज याचना - परिषह अनिवार्य नहीं है; फिर भी अगर कभी ज़रूरत हो तो याचना- -विजय करना चाहिये | इसके अतिरिक्त धर्म तथा समाज की उन्नति के लिये लोगों से अनेक प्रकार की याचना करना पड़ती है, इसलिये वहाँ भी उस परिषद के विजय की आवश्यकता है । मल - इसके विजय की भी ज़रूरत है, परन्तु इसके नाम पर शरीर को मलिन रखने का जो रिवाज़ है-वह ठीक नहीं है । अकलंक देव ने इस विषय में एक बात यह भी कही है कि केशलाच परिषह भी इसी में शामिल है । परन्तु यह ठीक नहीं मालूम होता, क्योंकि मल- परिपक्ष विजय का अर्थ है घृणित चीजों से भी घृणा न करके कर्तव्य पर दृढ़ रहना । बाल कोई मल नहीं है, बल्कि वे तो शृङ्गार के साधन माने जाते हैं। अगर उन्हें मलरूप माना भी जाय तो उनके धारण किये रहने में मल - परिषह - विजय है-न कि लौंच करने में । इसलिये यह समाधान ठीक नहीं है । आज केशलोंच की ज़रूरत नहीं है, इसलिये उसका उल्लेख निरर्थक है । अगर उसकी जरूरत होती तो उसका नाम
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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