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________________ २७८ [जैनधर्म-मीमांसा विचारकों को तो इसमें कोई स्थान ही नहीं रह जाता । इससे मालूम होता है कि बाजाविचय का यह ठीक लक्षण नहीं है। शास्त्रों का क्या अर्थ है, इस प्रकार का विचार भी आज्ञाविचय* कहा जाता है । वह अर्थ कुछ ठीक दिशा में अवश्य है, फिर भी संकुचित है। आगे वास्तविक अर्थ कहा जायगा। प्राणी सन्मार्ग से किस प्रकार नष्ट हो रहे हैं, इस प्रकार विचार करना अपायविचय है । कर्म का कैसा फल मिलता है इसपर विचार करना विपाक विचय है । और विश्व की रचना पर विचार करना संस्थान विचय है। साधारण दृष्टि से ये परिभाषाएँ ठीक है, परन्तु प्रश्न यह है कि संस्थान विचय के नाम पर भूगोल और खगोल पर जोर क्यों दिया गया ! इतिहास और पुराण पर क्यों नहीं ! बारह भावनाओं में एक लोक भावना है, उसी तरह का यह संस्थान विचय ध्यान है। माना कि भावना में ध्यान की तरह स्थिरता नहीं है परन्त अन्य भावनाओं को भी धर्म्यध्यान के भेदों में क्यों नहीं रक्खा ! यदि कहा जाय कि इनका आज्ञाविचय में समावेश हो जायगा तो बाकी तीनों धर्म्यच्यानों का भी आजाविचय में समावेश किया जा सकता है । इससे मलम होता है कि धर्म्यध्यान का यह श्रेणी. विभाग ठीक नहीं है अथवा इनकी परिभाषाओं में कुछ विकृति आगई है। ___वास्तव में धर्म्यध्यान के इन विभागों में एक क्रम है । बल्कि * आप्तवचनं तु प्रवचनमाहाविचयस्तदर्थनिर्णयनम् । स्थानांग टीका
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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