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________________ दशधर्म ] [ २७५ है इसका सम्बन्ध मोक्ष पुरुषार्थ से है, और दोनों ही बारहवें गुणन स्थान तक जा सकते हैं | तेरहवें चौदहवें गुणा स्थान में तो ध्यान लगाने की आवश्यकता ही नहीं रहती है; वास्तव में वहाँ ध्यान माना भी नहीं जाता, कर्म की निर्जरा होने से ध्यान का उपचार किया जाता है । जीवन के अन्तिम समय में यह अवस्था होती है धर्म्यध्यान के चार भेद हैं । आज्ञाविचय, अपायत्रिचय, विपाक विश्चय संस्थानविचय | आजकल इन चारों ध्यानों क परिभाषाएँ निम्नलिखित रूप में प्रचलित हैं: pam जिस समय कोई बात समझ में न आवे, उस समय यह समझकर कि जिनेन्द्र कभी झूठ नहीं बोलते उस बात पर विश्वास रखना आज्ञात्रिचय है । अथवा जिनेन्द्र के कहे शब्दों को युक्तितर्क से सिद्ध करना आज्ञा त्रिचय है* | कहना न होगा कि धर्म्यध्यान के नाम पर किसी वैज्ञानिक. धर्म में इस प्रकार अन्धश्रद्धा का समर्थन नहीं किया जा सकता । जं.वन में कभी किसी को इस प्रकार श्रद्धा से काम लेना भी पड़े परन्तु ऐसी बात को तो अपवाद और आपद्धर्म के रूप में रखना चाहिये न कि धर्मध्यान का भेद बनाकर । सम्भवतः निःपक्ष • उपदेः कुम्भावान्मन्दबुद्धिवान्कम दियात्सूक्ष्मत्वाच्च पदार्थानां हेतुदृष्टातीपरमे सति सर्वशप्रणीतमागमं प्रमाणीकृत्य इत्थमेवेदं नान्यथावदिनों जिना इति गहन पदार्थश्रद्धाननर्थावधारणमाज्ञाबिचयः अथवा स्वयं विदित पदार्थतत्वस्यतः परप्रातप्रतिपादाः स्वसिद्धान्ताविरोधेन तस्वसमर्थनार्थतर्कनय प्रमाण योजन परः स्मृतिसमन्वाहारः सर्वशालाप्रकाशनार्थत्वादालाविचयः इत्युच्यते । सर्वार्थसिद्धे ६-३६ ।
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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